Friday, May 3, 2013

बुलबुले

बूंद एक, जाने कहां से

टपक - लेती है उछाल

कैद कर लेती, छोटा सा आकाश

आगोश में अपने ।

अनगिनत बूंदें, अनगिनत आकाश

बुलबुलों से फिरते

रोशनी सूरज की बिखेरती

रंग इंद्रधनुषी

इतराते रंगों पर - टकराते

मिलजुल साथ चलते ।

कोई धूरी बना घूम रहा

कोई धक्का देता बढ़ता

फिर अचानक- टूट जाती परत

समाजाता बुलबुला नदी में

आकाश छिप जाता - अंतरिक्ष में ।

सब कुछ शांत

कहीं कुछ हुआ ही नहीं ।

अचानक बदली एक

फिर मचल रही रौशनी संग

शुरू एक और खेला नया

जाने कहाँ इसका अंत ।

लड़ी सपनों की

तोड़ो मत सपनों की लड़ी

यही तो नदी एक बह रही

इस वीरान मरुथल में।

उमंगों की लहरें, समोई इसमें

आशा की किरण, मोतियों सी झिलमिलाती

इसी नदी में , जीवनधारा

विस्तृत कर रही, प्रकृति

कभी मौन तो कभी मारती किलकारियाँ ।

नया मन्जर

कैसा गूंज रहा अट्टहास-

इन शहरों से,

पिघल रहा, पत्थर पहाड़ों के ।

कैसी उठ रही सिसकियां

इन गलियारों से

सरक रहे जंगल,

शहरों की सीमाओं से ।

सारे वहशी जानवर

डरे सहमे से - तक रहे-

कोई इन्सान न दिख जाये ।

पिघलते पत्थर -

सरकते जंगल -

सहमे जानवर -

देख नजारे सारे

सागर सारा टिक रह गया

कोटर में मेरी आंख के

बूंद एक आंसू की बन

न बह रहा - न टपक रहा ।

आत्मन


हे आत्मन -

जानते हो,

क्या होती - आत्मा ?

किसे कहते - परमात्मा ?

रोज देखते तुम,

उगते, ढलते चांद, सूरज

लहलहाती पवन

चंचल नदी, उत्तंग शिखर ।

यह धरती, यह गगन

बीच में बस मैं और तुम ।

कभी भटकते समरांगण,

कभी विचरते गहन सुगम वन ।

कभी महसूस करते,

कभी स्पर्श - तो कभी मनन ।

जो मैं कहता कभी मान लेते

तो कभी मानते कर गहन अध्ययन ।

फिर, अब क्यों - मौन ?

कहो आत्मन, क्या जाना क्या बूझा

क्यों सूनी-सूनी आँखें तुम्हारी,

मौन, शांत क्यों अब तुम्हारा मन ?

सब कुछ शून्य- हे आत्मन

सब कुछ शून्य- बस शून्य

इसी से जात यह सब

इसी में सब विलीन ।

जैसी अद्भुत परीभाषा इसकी

वैसा ही यह परम पावन ।

बस शून्य सिर्फ शून्य

समझे हे आत्मन।

तस्वीर

आधी  - अधूरी तस्वीर

जाने कहाँ - चित्रकार ?

आड़ी - तिरछी लकीरें,

कोई सीधी- किरण सूरज की हो,

तो कहीं थरथराती - सागर की लहर कोई।

थमा गया यह कटोरा,

फ़िर रहा मैं पर्वत जंगल-

झरनों से झरता निर्मल जल

भरता कटोरे में- पर

छलक जाता कभी तो

कभी सोख लेता कटोरा।

मुझसे भी बड़ा- साया मेरा

रंग सारे बदरंग कर रहा

मैं तरबतर पसीने में अपने

साये में अपने सुस्ताऊँ कैसे ?

क्या इन्हीं आधी अधूरी लकीरों में ही

छिपी अनगिनत तस्वीरें ?

पर कहाँ वो चित्रकार?

कहाँ उसकी तूली?

कहाँ छिपा रखे रंग अनेक ?

दूब की पत्ती


पत्ती - एक दूब की

रात भर बोझल,

बूंद एक - ओस से

तरसती रही - सूरज की,

हल्की एक किरण

रात ढल - छ्लका सवेरा

हल्का बोझ, दूब का हुआ

चढ़ा दिन - हुई दुपहरी

अब झुलस रही-

पत्ती वही दूब की

भय


उतरता एक गिद्ध्

दूर ऊंची, चोटी पहाड़ियों से

लहराता, मचलता-

झरनों सा मदमस्त,

हवा की तरंगों पर झूमता

पेड़ों के झुरमुट से

आँख मिचोली करता

निगाहें दौड़ाता - चारों तरफ़

पर लक्ष्य कर चुका

अपना सिद्ध

धीरे -धीरे, परछाईं उसकी

बढ़ रही जमीन पर

उससे भी बड़ी, भयानक

और

देख जिसे - स्तंभित

नन्हा शशक शावक