Tuesday, July 3, 2012

गुलदस्ता


गुलदस्ता


गुलदस्ता का एक फूल
कभी नहाता रहा-रौशनी सूरज, चाँद की
अब आँखें चुँधियाती- देख दुकान की
टिमटिमा जलती रौशनी।
आँधी, तूफान, बिजली-कभी इसे लरजा पाये
अब काँप जाता-कुछ लोगों की चहलकदमी पर।
डरा कभी-देख मंडराते भँवरे, तितली, चिड़िया
सिहर सा जाता-लजा जाता-शर्मा जाता
पाकर हल्का सा स्पर्श। 

जाने देश कौन सा- इसका
पर सजा यहाँ- गुल्दस्ते में।
साथी इसके और भी
जाने कहाँ सात समुंदर पार आए
सब सजे -बंधे रंगीन डोरी में।

रंग बिखेरते-
खुशबू -नहीं ढूंढता कोई।
खाना पीना मिलता-मुस्कुराने भर के लिये
मुरझाने की इजाजत- अभी नहीं।
बाजार भरा खरीददारों से,
नीलामी नहीं तो मोल भाव होते।
मतलब निकल जाने तक का-
इन्तजार गुलदस्ते को- खरीददारों को
फिर जा गिरना और सजाना
किसी कचरे के ढेर को।
क्यों सिहर जाता मैं-क्यों मुस्कुराते तुम,
देख दुकान पर -सजा प्रवासी गुलदस्ता?


सीमा


सीमा
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एक सीमा होती है
जहाँ ढल जाता-
चुपके से तेज, घना - दिन
टिमटिमाती रात में। 

उसी सीमा में-
धीरे से घुल जाता
हर किसी का देखा सच
सुने - सुनाये झूठ में।
सीमा से परे-कुछ भी नहीं होता,
देखते- देखते लिपट जाता
अनन्त, असीम आकाश
पद तले बींधती जमीन से।

मैंने देखा -इसी सीमा पर
सीना ताने-धर्म की चौड़ी छाती
हौले - हौले शिथिल हो रही
अल्हड़, मन्मौजी अधर्म में। 

कोई मिटा सका, ही छू सका
अजीब सी मरीचिका-यह सीमा
जहाँ उन्मुक्त-धधकता जीवन
बर्फ़िली मौत के आगोश में समा
भर देता तरगें-सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड में। 

तुमने देखा होगा यह सब-
पर देखी कभी सीमा?
सब में समायी-सबसे अछूती
कर रही अलग- एक को दूसरे से।
क्यों सोच रहे-ऐसा?
मैं तो देख रहा
मिलन यह अद्भुत-
सिर्फ सम्भव कर रही-सीमा।

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