Sunday, October 30, 2011

सफ़र में

तुम मत छूना
मुस्कुराती ओस की बूँद.
अभी तो गोधूली
हुई नहीं.
लहराने दो उसे ,
खेलने दो अठखेलियाँ
हरी दूब की घास पर
हवा के साथ -साथ.

तुम मत तोड़ना
नन्हीं मदमस्त कोंपलें.
बतियाने दो इन्हें
कोयलों के साथ.
यही तो होंगी
नीव का पत्थर
न जाने कितने अनगिनत
नींड के निर्माण पर.

छुपा लो यह
रंगीली शाम
सूर्यास्त के पहले
यही तुम्हारे सफ़र में
साथ देंगी-
मंजिलों से परे
उस अंतहीन क्षितिज तक.

छलावा

मुझे
एक बार और छलो-
बन मेरा प्रतिबिम्ब .
फिर एक
वादा करो ,
और मत आओ.
भेजो निमंत्रण,
तुम्हारे इंतज़ार से पहले,
मैं आऊँगा-
एक कहानी
लम्बी लेकर.
मौन प्रकृति,
स्तब्ध आकाश -
पराकाष्ठा है मेरी-
साधना की.

तुम गुनगुनाओ -
मैं सुनूंगा,
संवारूंगा मैं,
ढाल सुर में गीत तुम्हारे .
पर तुम इस तट ,
मैं उस छोर,
डरो मत
पास आओ मेरे,
और छलो-
दम्भित कर दो,
फिर- छलो हथेलियों की
लकीरों में छिप कर.

एक प्रश्न

उम्र एक
बीत जाती
जिन्दगी को हराने में.
पर दूर हो जाता ,
एक पल में
सदियों का अन्धकार
दीप एक जलाने से .

कैसे घेर सकता
उजाले को अन्धकार ?
कैसे घुल सकता
प्रेम में विष घृणा का ?

विरले ही जान पाए
क्यों छीन लिया किसीसे
पल में बचपन
तो किसी से
जीवन भर का साथ
अब तक है
यह प्रश्न-
अधूरा, अछूत .

कैसा है

कैसा है- मन
बिन पंखों के उड़ता -
गगन मगन.

कैसा है- जीवन ,
कुछ नहीं अपना
पर संजोता
हर कण.

कैसी हैं- आँखें
हो कर भी दो -
दिखता एक.

कौन है- यह अजनबी
देखा नहीं कभी
पर साथ मेरे अब भी.

कैसी है- डगर
कहीं नहीं मंजिल
पर बढ़ते ही जा रहे हमसफ़र .

होली -भाई रे

पापा-
कौन हमारा है
राष्ट्रीय पक्षी -
मोर.
और राष्ट्रीय खेल
हाकी.
और राष्ट्रीय त्यौहार
मैं अवाक चुपचाप
ढूंढ नहीं पाया जवाब.
होली हो- तो कैसा हो,
जवाब ने तोड़ी खामोशी
लगा निद्रा मेरी भंग हुई
हूँ...तक ही
कह पाया
हो सकता है -
पर क्यों?
अनायास पूछ बैठा.
क्यों नहीं


बेटे ने-जवाब दिया.
त्यौहार होली का - रंगों का
खुशी बांटने का,
गले मिलने का.
कितना मजा-जो है.

वाकई .. सोचने लगा मैं
पर कहते हैं
मूर्खों का भी
यही दिन एक
होली का दिन.
हाँ बेटे.. होली
हो सकता है.. यकीनन.
होली हिन्दुस्तान में ही
खेली जा सकती .
मेरा भारत ही
जनक हो सकता
होली त्यौहार का.

मैं सोचता रहा
कहाँ से शुरू करूँ
कौन कौन से
जताऊँ कारण
और होली को
राष्ट्रीय त्यौहार बनाऊं.
आदि युग से शुरू करूं
जब पूर्वजों ने
वसुधेव कुटुम्बकम का राग अलापा
परिकल्पना की राम राज्य की.
गूँज हो रही अब तक
दसों दिशाओं में.
पर मंजिल से
उतनी ही दूर अब तक.
शायद पहली होली खेली थी
अयोध्या में
जब लात मारी थी
भरत ने मंथरा को ..
पर बड़ी देर से
छोड़ चुके थे
राज पाट राम ने
और होली मनाने
चल पड़ा समय
सरयू के पार.
सीता ने भी
मनाई होगी
जब बैठी थी नदी किनारे
परित्यक्ता, आसन्न प्रसवा, असहाय.
विहंसी सी हंसी
तैर गयी लबों पर
जब देखी अयोध्या ..
जगमगाती होली के
रंगीन रंगों में.
कोई अंतर नज़र नहीं पाया
लंका व अयोध्या में
राम या रावण में दोनों ने ही
परिहास किया
उसकी अस्मिता का .
एक ने महान बन कर
एक ने शैतान बन कर.
होलिका दहन हो रही थी
सरयू के उस पार और
मुस्कराहट के साथ
दो बूँद आंसूं टपक चुके थे.
क्यों नहीं खेली फिरसे
किसी ने लात मारी
उस धोबी को पर
देर हो चुकी थी.
होली के राष्ट्रीय त्यौहार
होने का बीज बोया जा चुका था.

युग बीता -
पांडू कौरव पधारे
पौधे को और सींचा.
नहीं टोका किसीने
द्रौपदी को हंसने से .
वो हंसी जो
महाकाल का रूप धर आयी
चुप्पी साधे देखते रहे
महारथी चीरहरण का तमाशा.
फिर भी लात नहीं मारी किसीने.
होलिका की लपटें
शोलों सी भड़क रही थी
गूँज रहा था स्वर
योगक्षेम वहाम्यम का.
चुपचाप मुस्कुरा रही थी
सीता द्रौपदी के रूप में.

समय और गहराता गया
पौधे को और सींचा गया
तीर कमानों के युग से
गुजरता गया समय.
अजीब से कश्मकश में
कलियुग में ठहर सा गया .
महामुर्खों के मेले ,
अब लग रहे
रोज यहाँ.
मेरा भारत महान- की
गूँज विदीर्ण कर रही
चारों दिशा.
एक लकीर नहीं खींच पाए
सदीयाँ बीत गयी
कट गए न जाने
कितने सर
बन गया नरक
जो गुलिश्तां था कल तक.
टूट रही मस्जिदें
छिन्न भिन्न हो रहे शिवाले.
स्कूल एक तक ना बन पाया
ऐसे बिखरी बिखरे चूने , ईंट और गारे .
भाषण होते विदेशों में
नेता ही नहीं अभिनेता भी
जुबान भूल गए.
अपनी राग अलापते -
सभी अजनबी.
किसी ने लात नहीं मारी
जब गोली दागी
किसीने सत्य अहिंसा के पुजारी पर .
फिर रहे गर्दभ
चहूँ ओर दिशाहीन
लादे अनमोल नगीने.

अंधे बहरे भाषण देते ,
अट्टहास लगाते
तालियों की गड़गड़ाहट -
गूंगों से.
दुबके कोनों में
सिहर रहे हंस -
देख बगुलों की चालें .
अंधे भागे जा रहे दिशाहीन -
आंधी की तरह पश्चिम दिशा को -
जला सभ्यता की होलिका.
महामुर्खों का सम्मलेन
रोज होता ,
रोज लग रहे विचित्र रंग -
विश्वासघात के, झूठे वादों के.
रंगीन सपनों में ,
वसुधेव कुटुम्बकम के,
राम राज्य के ,
महान भारत के.
रंगीन दुनिया ,
रंगीन दुनियावाले
मनाते होली -
पर एक दिन ही.
मैं सोच रहा था
सच कितना उगल दिया -
अनजान सही-
नन्हे से बचपन ने ,
जो अभी सो रहा ,
रख सर मेरी गोद में -
खो रहा रंगीन सपनों में.

Saturday, October 29, 2011

आस

वो एक नदी ही थी,
उन्मुक्त, मगन,
मदमस्त, झरझर ,
कलकल कर
गुज़री पहाड़ों से ,
हरियाली बिखेरती ,
मैदानों में
उंदेल दिया खुद को
सागर की प्यास बुझाने .
बुझी नहीं प्यास ,
अब तक -
सागर समोता गया,
न जाने नदियाँ कितनी.
रास्ते बन गए
नदियों के,
नित नए
बंजर , बीहड़ रेतीले टीले ,
पर रोक न सके.
मरुथल सागर का -

जो अब भी गहराता जा रहा.
प्यासा हिरन
भटक चुका ,
मृगतृष्णा से
बुझाने
अपनी प्यास.
भूल गया रास्ते ,
जो बनाये थे
कभी नदी ने.
क्या पता कितने ,
वन जीवन जलते रहे
जो कभी पनपे
नदी के दोनो किनारे.
सिर्फ राख
बनती जा रही -
और फैलता जा रहा धुआं ,
घुट कर रह गयी नदी-
सूख गया बर्फीला पहाड़
और सहम गया
देख सागर की प्यास.
वो देखो -
क्षितीज पर
धुआं की ओट से ,
हल्की सी बदली -
उठती ना जाने
कहाँ से संजो देती
न जाने कितने सपने.
शायद फिर बरसे ,
पर न जाने -
कब?

मत पूछो, कहाँ ?

रुक गया हूँ मैं -
पूछते हो , क्यों?
परेशान सा हूँ ,
पर थका नहीं.
न जाने कितनी
मंजिलें तय की.
रुकते भी हैं, कहाँ
रास्ते मंजिलों पर .
पर मैं
किसी मंजिल की
तलाश मैं भी नहीं.
न जाने मोड़,
मिले कितने,
कितने चौराहे ,
कितने दोराहे .
कभी कभी सोचता-
मैं बदलता रास्ता ,
तो कैसा होता.
कितने कारवां
छोड़ दिए.
कितनों के साथ
चल पड़ा,
किसी भी
असमंजस में
ना था कभी भी.

मोती ढूँढने
निकला सफ़र में.
रास्तों में पड़े -
पत्थरों से जी
बहलाता रहा.
कभी सोचा ही नहीं
कहाँ मिलते हैं
रास्तों पर मोती .
बेचा है पत्थरों को
मोतियों के भाव.
सच बताना चाहा
पर सुनता है - कौन?
मौन धारण कर लिया
जब घिरा भेड़ चालों में.
इस मन को,
इस तन को.
परेशान कभी हो जाता
बटोरते पत्थर,
तो गुम हो जाता
कारवां में.

अब फिर चलना
उस जंगल की तरफ
चाँद सितारों की रौशनी

टिमटिमाती सही
कोई पगडंडी
न मिले तो नहीं.
नीले गगन की
तान चादर मिटाउंगा थकान.
बुझाउंगा प्यास
झरनों से
जो बहे जा रहे
कलकल, छलछल
पर अब पूछो मत कहाँ?

अधूरा स्वप्न

एक अधूरा स्वप्न
हो तुम.

साथ साथ मेरे
फिर भी
रोम रोम मेरे
सिहर रहे.
मैं जहां भी रहूँ -
जो भी करूं
रहते मेरे संग
हो तुम.


अभी अभी जो
छु कर गयी
अभी अभी जो
छल कर गयी.
नित नए रंगों में
ढल, आते - जाते
पल पल नूतन स्पर्श
हो तुम.

कोई मेरे आगे
कोई मेरे पीछे
भीड़ में मैं ,
मुझमें भीड़
कोई कहता कुछ ,
कोई सुनता कुछ
मन का मेरे शांत
कोलाहल
हो तुम.

मैं तुमसे अछूता ,
ना तुम मुझसे
परे परे रहकर भी ,
एक दूसरे को निहोराते
सब कुछ संजोया
मेरा- बिखर जाता
दर्पण में छिपा ,
एहसास मेरा
हो तुम.

दूरीयां समय की,
परे नहीं कर सकती
मन से.
रौशनी सूरज की
छिप बदलियों के ओट,
दहकती नहीं
बदन के साए
पगडंडियों के
मुड़ने से ख़त्म
नहीं होते रास्ते
टूटा शीशा नहीं,
सिर्फ बिखरा विश्वास
हो तुम.

महक

महक मेरे मन की -
अब तक छिपी हुई -
सीप में मोती सी.
कभी निकलने को बेकल
कभी डरी सहमी सी-
गुमसुम.
मुठ्ठी में क़ैद -
एक जुगनू बिखेरता
चमक अपनी.
बेखबर क़ैद से-
अनजान दिन से .
जाने कहाँ तक
फैले खुशबू.
जाने कब तक
रहे चमक.
ना रोके रुकती खुशबू
ना बांधे बंधती चमक.
कोई होड़ नहीं खुशबूओं में

मदमस्त बहती
तरंगों पर हवाओं
के साथ छिप जाती
कलि में फिर
फूल से बिखरती .
चमक चमकती पेड़ों पर
अनजान अपनी ही
पहचान से.
महक मेरे मन की
बेकल-छिपी हुई...
बेकल बिखरने को ..

जीवन कल

बार बार भेजता
सागर लहरों के रेले.
किये थे जिन्होंने
कभी पर्वतों को
रेतीले टीले .
अब सर धुनता सागर
जब सोख लेते ,
हर लहर
वही रेतीले टीले.
परिसीमित कर दिया
सागर का अहम्,
समय के फेर ने.

काँप गया ,
तूफ़ान का जोर
बिजली सी दौड़ा दी ,
आसमान में
जब देखा
हल्की सी हवा में
टूटते पत्ते को
मिट्टी बन ,
मजबूत करते जड़ों को.

हर महाविनाश पर ,
बोया जा रहा
बीज नया
संचार होता नवजीवन
रोक नहीं पाया कोई
निर छल, निर्मल ,
पावन-पल पल
समय की
मद्धम धार
अविरत ,
अनंत और अगाध.

मंजर

इतने सालों में
सब कुछ बदल सा गया .

वो पगडंडी
जो गुजरती थी
मेरे घर के बगल से
अब विस्तृत हो गयी
किसी उफनती नदी सी
निगल रही
अपने ही किनारों को.
पगडंडी के किनारे,
खड़े हो देखता ,
रोज गोधूलि
पर अब सिर्फ
उगलता देख रहा
जहरीला धुआं
यह सर्पीला रास्ता.
लगा है रेला
अनगिनत गाड़ियों का .
अभी तो गुजरे हैं
वो दिन -
जब उस पगडंडी पर
मैं उछलता कूदता
साथियो के साथ
भागता- फिरता
उन लहलहाते खेतों के बीच
छिप जाते ,
न जाने कितने घंटे
पलछिन की ओट.
नहर एक गुजरती थी
लहलहाते खेतों के बीच,
वहीं से बहता ,
कलकल करता पानी ,
सींचता , हरियाली बिखेरता
गुम सा हो जाता
उस पहाडी के पीछे .
अजीब सा रिश्ता
बंध गया था
हम सब के बीच.
कुछ ही सालों में
इमारतें इतनी ,
धकेल दिया
पीछे खेतों को .
छिप गयी वो नहर
इस फुटपाथ के नीचे,
जहां से गुजरता
इन इमारतों का दूषित जल .
नहर ने भी तय किया
सफ़र अपना
गंगाजल से गंदाजल का.
इन्हीं चंद सालों में.


मैं कुछ आगे बढ़ा,
उसी पगडंडी पर
यादों के सहारे, -
उस मैदान पर ,
कोने पर जिसके होता
एक छोटा शिवाला.
युग सा बीत चुका ,
विशाल भव्यमंदिर की
चारदीवारी में गूँज रहा-
यत्र , तत्र, सर्वत्र-
जनावेश का निनाद
आसपास फलफूल रहा-
अजीब सा अजगरी व्यापार.


वो मैदान जहां
भागते फिरते
तितलियों के पीछे
अनजान चुभते काँटों से.
जूनून था सवार
तितलियों को पकड़ने का.
पकड़ फिर छोड़ने का.
देखते दूर तक
उड़ती तितलियाँ,
खिलखिलाते हम सब ,
बजाते तालियाँ,
झूमते हवा के संग.
मैदान के इस कोने से,
उस कोने तक
ढूँढते फिरते एक दूसरे को
झाड़ियों के झुरमुट में
निर्भीक , निश्चिन्त ,
निश्चिन्त, बेपरवा
उन छिपे सांप , बिच्छुओं से.
वो भी आनंद मगन ,
संग हमारे .


पर यादों के झरोखों का
वो मंजर ओझल हो गया ,
बहुमंजीली इमारतों में,
उड़ गयी तितलियाँ
खामोश किलकारियां
झिलमिलाता , टिमटिमाता
अब परेशान सा बचपन
अनजान तितलियों से
भागता फिरता दिशाहीन ,
बदहवास कारवां
अपने ही सपने बुनता -
उन्हीं के पीछे भागता
देखता-
टूटते, उजड़ते सपनों का मंजर
किलकारी लगाता ,
खुद को बहलाता
देख नए सपनों का अम्बार .
फिर भी अनजान
अब तक उन्हीं
सांप बिच्छुओं से
जो रोष में भरे दुबके -
छिपे कचरों के डिब्बों पीछे.


कहाँ से कहाँ तक
चल पड़ा पूरा शहर ,
कुछ भी वैसा नहीं
अब छिप गया
पूरा मंजर
मेरी यादों के कोनों में.
अब क्या कहूं तुम्हें
कैसे देख सकता
बचपन तुम्हारा
थामे उंगलियाँ मेरी .
बिजली सी कौधी
जब मेरे बचपन ने
थामी थी , उंगलियाँ
नहीं देख पाया होगा
उस सुनसान जर्जर किले का
विस्मित , विलासमय इतिहास .
उस किले से मेरी बस्ती
और मेरी बस्ती से
तुम्हारा शहर
यही धरोहर
दिए जा रहा तुम्हे.
पर क्या बता पाओगे
मुझे
क्या सोंपोगे -
तुम अपने आने वाले बचपन को?
खिलखिलाते हो क्यों ?
देख आसमान को
सिहरन सी दौड़ गयी ,
ठहरो ज़रा सा मोड़ लो
अपना प्रगती रथ ,
इस प्रकृति चक्र संग .

Sunday, October 16, 2011

अंत

पल- पल ,
तिल- तिल,
घुट- घुट कर -
मरते देखा है
इसी चौखट पर,
तुम्हारे,
इस सच को.

कैसे कह सकते हो
तुम-
क्यों दिलासा देते हो
मुझे बार-बार,
इस पुतले को सदियों में ,
जलाकर एक बार
अंत हो गया - पाप का.

प्रयास

कभी तो ऐसा हो,
आँखे खोलूं और-
सपने सच होता पाऊँ.
कदम बढाऊँ और-
सामने मंजिल पाऊँ.
वक़्त मिले और-
खुद से मिल आऊं.

कोई तो-
साथ मेरे,
दर्द भरे
गीत गुनगुनाए.

सोचता ही रहता-
ऐसा होता- तो कैसा होता.

कौन कहता-
होता नहीं ऐसा.
एक के साथ -
यह सब नहीं होते ,
पर सब के साथ -
कुछ तो होता.

कहीं ऐसा- हो
तो कैसा हो
स्वार्थ में-
परमार्थ सिद्ध हो जाए.

बुराई से-
भलाई हो जाए.
घृणा में- प्रेम
झलके.
झूठ से-
सच निकल पड़े.

सागर सींचते हुए खेत -
नदी से मिल जाए.
गरीबों की भूख-
अमीरों को पोसे.

होता है ऐसा -
किसने नहीं देखा?
रोज- आँखें मेरी
देखती.
जब खुलती-
बुझ जाता मन.
फिर सोचता-
कहीं ऐसा भी होता.
होता ऐसे तो-
रुक जाता जीवन चक्र.
यही तो होने को-
होते सारे प्रयास,
कभी सार्थक- कभी निरर्थक.

आवाजों का सफ़र

कितनी आवाजें
तैर रही
इस सफ़र में.
थक गया,मुसाफिर
इनका पीछा करते.

रुकती ही नहीं-
आवाजें.
सपनों सी लगतीं
कभी सुहावनी,
कभी डरावनी.
मौक़ा भी नहीं देती
यही आवाजें
इक पल मुलाक़ात
हकीकत से.

कोई साथी भी नहीं,
सिर्फ साया सा एक -
साथ फिरता.
जब ढूँढता उसे - मुसाफिर,
वह भी
ओझल हो जाता .

परेशान ,
बुझा हुआ और
अन्दर ही कहीं
बिखरा हुआ - मुसाफिर.
पर नज़र नहीं आता
बाहर से.
अकेला नहीं
इस भीड़ में पर ,
इतना तन्हा-
कभी नहीं- मुसाफिर.

सफ़र तो सिर्फ
सफ़र है -
सभी के लिए,
फिर कैसे रुके - मुसाफिर.

मंजिलें और रास्ते

अब मंजिल कहाँ-
इन रास्तों पर
सफ़र ही सफ़र.
कहीं और ही
छूट चुकी
अपनी मंजिल.

कितनों ने चुने,
रास्ते मंजिलों के लिए?
थक जाते हैं वो,
जो चुनते -
रास्ते- मंजिलों के लिए.
यकीन नहीं होता
इतना सुकून मिलता,
इन रास्तों पर.
वो कैसे थे-
युगपुरुष
जिन्होंने चुने
रास्तों को ही मंजिलें.
पर , अब
कोई नहीं चुनता
रास्तों को ही मंजिलें.
सारे दोहरे मापदंड
धर हथेलियों पर -
चल रहे रास्तों पर -
युगनिर्माण को.
पर कहाँ-
इनकी मंजिलें?

रुकी हुई नाँव

समुन्दर में
डोलती फिरती-
हिचकोले लेती नाँव.
यह किस मुहाने से टकराई .
वो तूफानी
लहरों के साए
वो अठखेलियाँ
अथाह, अनंत- समुन्दर में
सपने से लगते .

इस दलदली
मद्धम मुहाने पर.
कभी देखा
किसी ने
समुन्दर को
नदी की ओर जाते.
प्रकृति ही नहीं
सागर की ऐसी.
फिर यह नाँव -
क्यों चल पडी?
शायद रुख हवा का
ऐसा हो.
पता ही न चला -
किस पल
बदला रुख, हवा ने.
पतवार तो
थी हाथ में
फिर रुख हवा का
बदला भी तो क्या?
अक्सर कचोटता
यह सवाल.

अब तो सिर्फ-
इंतज़ार,
फिर तूफानों में
सांस लेने का.

चिंगारी

आओ ऐसी एक
दुनिया में चलें,
जहां राम, रहीम
नहीं हैं एक.
ईशा, नानक
बैठे हैं अलग .
रामायण, कुरान
कहते अलग जुबां.
बाइबल, गुरुग्रंथ हैं
डोर अलग अलग.
समझ गए तुम,
अलग नहीं- दुनिया.
ऐसी बस रही
हम सब के बीच.

अलग रखने में,
बीत गयी सदियाँ -
सब निरर्थक,
कोई नहीं सुनता,
कोई नहीं समझता.

मैं कहता हूँ-
रहने दो अलग.
होने दो होड़ -
बड़प्पन की .
होनी पर यकीन नहीं,
अनहोनी के प्रयास-
किस दुनिया में रहते हो
आँखें खोलो- देखो
कितना फर्क नज़र आता
मंदिर, मस्जिद , चर्च, गुरूद्वारे में.
मुझे नहीं समझना -
ईशा , मुहम्मद , साईं, नानक.
नहीं खानी फिर
गोली सीने पर.
कोई चाह नहीं.
अब महान बनने की.
मान लिया,
जो दिखता - वही सत्य.
बाकी सब -सिर्फ प्रश्न.
पर अंधों के लिए -
एक है सब
क्या सत्य- क्या असत्य,
जो सगुन - वही निर्गुण,
जैसे पानी - वैसे बादल,
जो दिन, वही रात.

अब तो-
गोधुली भी नहीं,
जहां मिलते
रात और दिन.
रंग बिरंगी दुनिया के -
कहाँ हैं सारे रंग.
सब नज़र आते फीके.

मत निकालो चिंगारी
पत्थरों से,
जाने किस- बेबस का घर जले.
मत निकालो
तिलों से तेल
जाने किसका- खेलता बचपन फिसले.

क्यों नहीं-
मान लेते तुम भी,
अनगिनत नदियाँ
मिलती सागर से.
जितना भी उन्देले मीठा जल
कोई कमी नहीं खारेपन में.
फिर भी जाने क्यूं-
रुकती नहीं यह बरसात,
रोकने नदी का
यह अथक प्रयास.

अन्धायुद्ध

हे प्रिय
स्वागत है तुम्हारा
युद्ध विजयी
जो हुए तुम.
तुम्हारे लिए ही
सजा रखा
यह विजय थाल -
थक गयी पलकें
तुम्हारे इंतज़ार में .

यहाँ
क्यों ले कर आये?
हे प्रिय-
क्या यही था
समरांगन तुम्हारा?

तुम
कहाँ विजयी हुए?
जीते तो लोमड़, सियाल और गिद्ध-
हार गए प्रेम , विश्वास और जीजिवासा.
मसान जीत लाये,
हार कर बस्तियां.
मिटी कहाँ सीमाएं,
बस कुछ और
हो गयीं परे.
क्या
नहीं जान पाए
अपने ही शत्रु को?
महसूस ही कब की
पीड़ा सृजन की.

हे प्रिय ,
आओ अब चलें
इस राह से.
उस कल्प वृक्ष तक.
उतार लायें उन अस्त्रों को-
जो छिपा रखा है
नजाने कितनी सदियों से.
कहाँ अवरुद्ध हुआ
द्वार प्रस्थान का.

हे प्रिय
क्या एक और महायुद्ध
नहीं लड़ोगे मेरे लिए.
विजयी होकर लौटना
तुम्हें मेरे इन्द्रधनुषी
सपने करने तुम्हे
साकार.
इस अंधे युद्ध से
भीषण, भयावह
और एक सिर्फ...

आस

आकाश का-
बना बिछोना,
बिछा पहाड़ों की किरकिरी-
उमंगों के, खाती हिचकोले-
बहती रही,
निश्चिन्त नदी.

आँखों के कोटरों से
बहते- ग़मों के आंसू
उड़ जाते - बन भाप,
नदी को भिगोते .
गालों तक पहुँच,
आंसू खुशी के
जाने कहाँ, बरस पड़ते
ढल जाते.
दीपक की लौ सी,
थरथराती नांव,
लहरों से बढ़ाती पेंगे
चल रही
अथक.

देखा है उसने-
रात भर घुलती
नदी में - चांदनी.
सिहर उठती
छु कर
गर्मी सूरज की.
फिर भी बहती रही-
नदी.
धरती को समेटने.

मछलियों की,
टोह में-
कूद पडा,
पक्षियों का झुंड.
पर मिली-
सिर्फ परछाइयाँ.
मचल कर- तभी
कूद पडी,
बूँद एक-
समेटने आकाश.

अजीब

आइना ले कर फिरतें हैं,यह शहर बड़ा अजीब है.
सबको चहेरे दिखाने की आदत, ये इंसान बड़े अजीब हैं.


बगल में खड़ा मुस्कुरा रहा, यह दोस्त बड़ा अजीब है
मैं हादसे गुजर चूका, यह मुअम्मा बड़ा अजीब है.


तूम पूछते मुझे मेरा ठिकाना, यह सवाल बड़ा अजीब है
अभी तक दिल में आपने नहीं झाँका, यह मोहब्बत मेरी अजीब है.


मंजिलों तक पहुँच जाते कभी के ,ये रास्ते बड़े अजीब हैं.
पास रह कर भी हम दूर हैं, ये फासले बड़े अजीब हैं.

अब जी मचलता

देख दोस्तों का दोस्ताना, इस हुजूम - ए- सफ़र में
दुश्मनों को गले लगाने, अब जी मचलता.

वफादारों ने वफ़ा, निभाई कुछ इस कदर
बेवफाओं को फिर, आजमाने को अब जी मचलता.

अपनों के अपनापन में, ऐसा लूटा दिल को हमारे ,
बैवजा सब कुछ लुटा, फकीरी को अब जी मचलता.

जलवे जिन्दादिलों के, देखे ऐसे हमने,
रिश्ता मौत से निभाने को, अब जी मचलता.

तपिश सूरज की, छिपी बादलों के ओट में ऐसी
जुगनुओं से रोशन घर करने को, अब जी मचलता.

मुस्कान हल्की सी, देखी ऐसी मासूम लबों पर,
उम्र भर रोने को, अब जी मचलता.

तमाम उम्र कौड़ियों को, दिल ऐसे तरसता रहा,
इस मुकाम पर हीरे मोती, लुटाने को अब जी मचलता.

मेरे हमसफ़र, मुझे गुमराह करने का शुक्रिया
मंजिल पाकर भी अपनी, हमराही बनने को अब जी मचलता.

रेत के दरिया में, दफ़न हुई मौजें ऐसी,
दूर लहराती बदली से, बूँद एक टपकने को अब जी मचलता.

राह- ए- मुसाफिर हैं हम, कब तक साथ निभाओगे,
मुकाम- ए- मंजिल देख, राह बदलने को अब जी मचलता.

बेताबियाँ इस दिल की, कुछ इस कदर बढीं
बेगाने हो तुम, पर अपनाने को अब जी मचलता.

लहलहाता जंगल जलता देख, दूर पहाड़ियों पर
रुख अपना मोड़ने को, दरिया का अब जी मचलता.

मैं सात समुंदर पार चला

कहते हैं यह दुनिया एक गाँव, कोई किसी से नहीं अछूता
घर मैं अपना साथ निभा, चौपाल पर कुछ यारों से
मैं सात समुंदर पार चला.

तीसरी दुनिया में बचपन बीता, उसीकी मिट्टी, पानी, हवा ने तराशा
अब दूसरी दुनिया छोड़, पहली दुनिया में अपनी आजमाईश करने
मैं सात समुंदर पार चला.

खेली अठखेलियाँ, खिली-खिली धुप, दूब, चांदनी में

अब जरा सर्दीली हवा, रेतीली बर्फ पर पाँव आजमाने
मैं सात समुंदर पार चला.


सुना था दूर के मंजर होते है सुहाने, पर सुनी बातों पर यकीन कब था
घर को सुनहरे मंजर तक, पहुंचाने की चाह में
मैं सात समुंदर पार चला


वहाँ दोस्तों से मिल, सपनों के ताने-बाने बुनता
उन्ही सपनों में, चंद सपनों को अपनाने
मैं सात समुंदर पार चला .


रोटी तो वहाँ भी थी, साथ थी अपनों की नरम गरम बातें
जाने दिल को क्या टीस लगी, गैरों में अपनों को ढूँढने
मैं सात समुंदर पार चला.


सदीयाँ बीतीं, मूल्यों को दिल में अपने आंकने
इस दिल एक छवि, जाने किसे दिखाने
मैं सात समुंदर पार चला.


खींची लकीरें जाने किसने, गहराती गयी वक़्त के साथ
लकीरों के उस पार बैठे, कुछ यारों से वक़्त गुजारने
मैं सात समुंदर पार चला.


वो बापू की रंगभूमी, यह है उनकी स्वप्नभूमी
इस स्वप्नभूमी को अपनी, कर्मभूमी करने
मैं सात समुंदर पार चला.

कौन यकीन करता, मेरे इस फैसले पर जो जाने किस घड़ी लिया
खुद हैरान परेशान हूँ, जब सोचता इतनी सी बात पर
मैं सात समुंदर पार चला.

बुझा दिया

वो जो दीया सहारे का, सजा रखा था तुम्हारा
वक़्त की आंधी ने, जाने कब बुझा दिया.

जब जुदा हुआ मुझसे, वादा था लौटने का
गुजरा हर लम्हा ऐसा, यादें तक धुंधली कर गया.

वो जो पाया दिल ने, देख दूर से झलक उसकी
इतराता नसीब अपना, ऐसा दीदार- ए- यार किसने पाया.

वो जो खोया, ख्वाबों में जाने किस रकीब के
शिकवा रहा खुदा से, सब पाकर उसे खोया.

वो जो लौटा , खिजा में बहारें सौगात थी
पूछता फिर रहा सब से, वो फिर क्यों आया.

पुरुषोत्तम -2

हे पुरुषोत्तम राम
तुम्ही तो बने रथ पथ
जिस पर गुजरा
रावण का अहम्
क़ैद कर सीता को.
मोड़ दिया था पथ-
अशोक वाटिका को
और बन बैठे अशोक वृक्ष
जहां हर पल -
संजोये रखा
जनकदुलारी को.

तुम्ही बने
उस अगन का तेज
जिसमें ढाली ,
अपनी हिय-प्रिय को.
तुम्ही तो थे
वो पर्ण कुटीर
जहां सही थी
प्रसव वेदना ,
कब जान पाई
अवध नगरी.

कितनी सूक्ष्मता से
पिरोया जीवन का आधार.
हर पल हर कण में
अब तक गूँज रहा
नारी शोषण का सन्देश
मायावी मृग वध का परिणाम.
पर तुम अविरत निश्छल
तब भी - अब भी.

पुरुषोत्तम 1

कैसे राम हो तुम ?
एक सोने के हिरण की
याचना ही तो की थी
सीता ने
और भेज दिया
उन्हें सौ योजन पार
सोने की लंका में .
कैसे पुरुषोतम हो तुम
किसी के छलावे में आकर
त्याग दिया- वैदेही को
किसी वीरान , भयावह जंगल में.
तुम क्या सच में रोये थे ?
क्या सच में चुना था -
वानरों और रीछों को?
किस पल सत्ता का
विरह तो नहीं सता रहा था.
तुम वो राम नहीं,
जिसके लिए सागर ने
पत्थरों को भी मोम सा तैराया.

जिनके चरणों को छूने
सदियों पथराई
मौन रही- नारी .
तुम वो पुरुषोत्तम भी नहीं
जिनकी इच्छा मात्र से
वानराधीश ने सागर सौ योजन -
पल में लांघा.
कौन हो तुम-
बार- बार बदल- भेष कितने,
कितने छलावे
ढांपते वेदना हमारी.

मौन मुखर

न जाने कितनी बार
गुजरा हूँ मैं -
द्वार से तुम्हारे
पर तुम वैसे ही -
जड़वत स्थित्वान .
जब भी देखा है-
कनखियों से
वही बाहें पसारे
अपलक नयन बिछाए
न जाने किसका तुम्हें इंतज़ार.
अभी तक -
यकीन नहीं होता कि
तुम हो खोये - खोये से
कई बार , सोचा मैंने -
पूछूंगा अगली बार
जब फिर गुजरूँगा -
इस द्वार से.
पर न जाने क्यों -
आज ठहर गया मैं,
और इछुक हो बैठा
कब हुआ?
ऐसे तो तुम -
कभी ना थे.
याद है ,
अब तक -
वो पल जब
झरनों सी चुलबुलाहट- थी
तुम में
गिरते थे क्षितिज से -
और भर देते थे-
गूँज इस ब्रह्माण्ड में.
विचरते समीर की तरह,
संचार करते नवजीवन ,
नवसुगंध और छिप जाते
सतरंगी धनुष बन-
सूर्य के प्रकाश में.
क्या सुना-
लहरों से तुमने
जब नदी बन मिलने गए -
सागर से?
या फिर रोका तुम्हे
हिमराज ने ?
कहीं क़ैद तो नहीं कर दिया
किरणों ने सीप में मोती की तरह.
मालूम है मुझे ..
सब सुन कर भी
अनसुनी कर देते हो.
सब देख
कर देते हो अनदेखा
और सब कह-
अनकही .
पर जानते हो क्या-
ठहर गया ,सब
जब से मूरत बन
बैठ गए तुम .
बिखरती नहीं ,
कलियों से खुशबू
हर डाली है घुटी - घुटी,
सहमी सी.
मिलते नहीं झरने -
किसी नदी से.
निगल लेती
रेतीली बस्तियां.
छिप गए अनगिनत इन्द्रधनुष -
सूरज की ओट.
अब तो गुजर रहा
ऐसा पतझड़ कि
काँप जाता मधुबन
देख बहारों के स्वप्न .
पर तुम अब भी
जड़वत , स्थितवान.
यह कैसा स्पर्श शीतल ,
स्पंदन भरा.
कोई तो नहीं
फिर किसने छु लिया .
छलिया- कहीं तुम्हीं तो नही.
पर तुम- मौन मुखर..
मैं नतमस्तक.

क्षितिज के पार

किसका है इंतज़ार -
इस झुरमुट के पीछे से
सूरज के उगने का?
हमने तो देखा नहीं.
देखा तो सिर्फ एक गुबार -
धूल भरी आंधी .
कहीं और तो नहीं
छुप गया यह सूरज
बादलों की ओट में-
या फिर क्षितिज के उस पार.
अन्धेरा नहीं है
पर उजाला भी तो नहीं.
कैसी है यह वेला-
सांझ की या सुबह की.
वक़्त जाने कब से थम गया

इतने सवाल मुझसे क्यों?
खुद ही तलाशते नहीं
क्यों- जवाब .
हमने तो उम्र गुजारी है
जुगनुओं की रौशनी में.
अब नहीं इंतज़ार छुपे हुए सूरज का .
तूम छिपे रहो बादलों में
या क्षितिज के पार .
अब कोई फर्क नहीं
सांझ हो या सवेरा
हल्की सी हवा ही चुरा लेती -
सारी थकान.
नमन है तुम्हें -
क्या तुम सृष्टा हो..
या फिर ... कौन हो तुम?

फिर सवाल.
हम तो हैं
मुसाफिर आज यहाँ तो-
कल क्षितिज के पार.

ज़िंदगी

तमाम समय ज़िंदगी
भागती रही गलियारे में
और द्वार पर पहुँच
दुबक , बैठ गयी.

रौशनी के लिए
फिरता रहा जंगल सारा
जब देखी किरण
हल्की सी
भींच बंद कर ली
आँखें , उसने.

परत दर परत
सहेजता रोज रात चांदनी.
बिखेर देता
इधर-उधर
देख सागर पार सूरज.

शब्दों के ताने बाने बुन
देर सफ़र में रहा साथ,
फिर भी राही को
शिकायत ही राही
जब तनहा कर गया ,
मंजिल के पास.

कल्पना मेरी

कविता मेरी नव जीवन ,
नव कल्पना नव उल्लास ,
या सिर्फ एक टाट का पैबंद.
वो नन्ही बूँद ओस की,
छिपा रखी घना कोहरा.
एक हल्की किरण,
आगोश में लिए-
तमस की कालिख .

उधार मांगता
झोंका हवा का
बेचैन रंगीनियाँ सूरज से
और खुशबू नन्ही कलियों से
बिखेरने इधर - उधर.
बेताब उस अमरलता सी
अमरलता से लिपटी.
या फिर कुछ भी नहीं
एक झूठ , इंतज़ार
सोये हुए सच का .

कलियुग

कलियुग का सूरज
चाँद बन फिर खिल उठता
शाम के ढलते ढलते.
कलियुग का सच
प्राण बन लहू में
बस जाता छुप छुप-
हवा में घुल कर.
कलियुग का इंसान
अब भी नरभक्षी ,
क़त्ल कर लगा देता
धर्म की मोहर.

दूर से देख रहा ,
चुपचाप बादलों में
उड़ता पंछी ढूँढते
नया बसेरा.
अब भी संजो रही -
नन्ही सी दूब
ओस से पानी की बूँद
सींचती, अपनी ही जमीन.
फूलों से ढकी -
एक पगडंडी -
जाने कहाँ गुम हो जाती.
न जाने क्यों -
चाह नहीं रही उसे
सड़क से मिलने की.

प्रकृति

वो एक नदी
कल-कल , छल-छल करती
झूमती मदमस्त
समुद्र में विलीन.

वो एक समुद्र
पल-पल,
चपल, चंचल किनारे पर -
एक रेत की लकीर.
क्षितिज पर-
शांत, असीमित.

वो एक क्षितिज
मौन मुखरित

नभ मंडल में विलीन ,
संग अगणित ,
अनंत सूर्य.
शून्य से महाशून्य की
दूरी तय करती,
सीमाहीन शक्ति.
अपनी छाप छोड़ती ,
हर कण-कण में.

वही कण
जो सिमट रहा
हर स्वाती बूँद में.
वही स्वाती बूँद ,
स्रोत बन रही
नदी के धार की.
बूँद ही बिन्दु,
बिन्दु ही शून्य.
कोई भूत नहीं,
न कोई वर्तमान,
न ही भविष्य.
फिर भी कितने
अलग अलग ,
अपनी प्रकृति के कारण.

मरीचीका

क्या तुमने भी सुना
यह कोलाहल.
नहीं तो-
सन्नाटा ही गूँज रहा -
इस किनारे.
छलक रही रौशनी ,
उस दूर कोने में रखे दीप से.

चुपचुप गुनगुना रही
यह रौशनी,
शायद विजयी हुई
अन्धकार पर.
क्षणिक भर सही.
कोई एहसास -
अभी नहीं.

रौशनी तो
कब से खड़ी
विजय पताका लिए
तुमने ही करदी देर
स्वप्न मरीचीका से पलटने में.

अब नहीं लौटूंगा

अब तुम्हारा
सच ही सुनुगा
राम को राम कहोगे -
कहूंगा,
रहीम न समझूंगा.
दिखाओगे जिसे
उसे ही देखूंगा-
नयन अपने
कभी ना खोलूंगा.
क्या सब कुछ मुक्त ,
मेरे लिए जब तक
मैं साथ तुम्हारे -
यह मेरी हंसीं ,
ये मेरे विचार ,
अधीनस्थ तुम्हारे.

ले चलो
तुम मुझे संग अपने.
अब चाह नहीं
मुक्त विहंग सी उड़ान.
सहम गया हूँ मैं
जबसे छीनी- हंसी
तुमने नन्ही सी बच्ची के होठों से.
किस बुत को खुदा बनाया
शैतान भी बेबाक.
सियासत तो थी तुम्हारी,
अब खुदा की खुदाई भी.
रुखसत होने दो मुझे,
नहीं करना नवयुग निर्माण.
बुझा दी है , लौ दिए की
छुपा ली है चिंगारी मैंने.
तुम्हारे साथ लौट नहीं सकता
समय पथ पर,
मेरा सफ़र तो
इस युग से भी परे.
शक्तिहीन ,
विचारहीन- तुम
विवश - मैं.
अब नहीं आयेगी ,
खामोशियों से मेरी
वेदमंत्रों की अजान.

अलग कर दिया तुमने
कलियों से खुशबू ,
लौ से तापस,
रौशनी से छाया,
बच्चों से बचपन.
सुन रहा हूँ अट्टहास तुम्हारा
इस रेतीले किले से
जिस पर बसाए तुमने ,
जाने कितने वीरान मंजर.

अब नहीं देखना ,
ना सुनना,
ना कुछ कहना.
अब नहीं लौटूंगा ,
यहाँ- पर.
पड़ाव आख़िरी नहीं मेरा
न मुक्ती की चाह.
छिपी चिंगारी मेरी
फिर कहीं -
किसी और दीपक की
लौ बनानी मुझे.

चक्रव्यूह

क्यों विचलित
हो तुम-
रे मन .
तुम कहीं
थक तो नहीं गए
देख यह धुप - छांव.
तुम कहीं
भूल तो नहीं गए,
देख बीता हुआ कल.

नित नया उजाला ,
नया अंधियारा आता
और जाता.
उड़ जाओ तुम
अंतहीन व्योम में
कहीं नहीं जा सकते
बार-बार आना है,
पर उलझना नहीं,
इस चक्रव्यूह में.

गीत मेरे

क्यों संजो रखे
मेरे गीतों को.
बिखर जाने
क्यों नहीं देते
इस समय की धार में.
बस यूं ही
कुछ बेचैन से
मेरे शब्द.
जैसे वह बूँद -
उछल पड़ी
सागर से आकाश को छूने.
या वो कम्पन-
टूटते पत्ते की
पहाड़ों को चीर ,
उस पार जाने को अधीर.
गीत मेरे इक
हल्की सी चमक
चाँद की
ओझल होती
इन लहरों पर
या फिर
एक आह -
जो मचल उठी
और मुस्कुराते
होठों से फिसली.

अब रोको मत
मिल जाने दो -
अपने सागर से
इस नन्हीं सी बूँद को.
घुल जाने दो -
वो हल्की सी कम्पन
इस बियाबान जंगल में.
समा जाने दो-
यह चमक
हिलोरे लेते - लहरों के साथ
इस रेत में.
बिखेर दो
यह आह-
धीरे से
उन टिमटिमाते तारों के
आस पास.

विचलित मन

आने वाले पल को
सोच क्यों विचलित -
यह मन.
कुछ भी तो
नहीं बदला
सब कुछ- यथावत.
अब भी डगमगाते कदमों से
चलता- बचपन,
कभी संभलता , कभी लुढ़कता.
सब कुछ मुठी में
क़ैद करने की चाह से
यौवन भरा - खिलखिलाता
जब रेत सा सब फिसल जाता.
किसी कोने में-
अपनी पहचान ढूँढता
सिहरता ,ढलता - बुढापा,
कभी कहकहे लगाता,

ईंट, गारे, चूनों की दीवारों से
बदलता नहीं इतिहास.
कागज़ पर
स्याही की लकीरों से
समाज नहीं बंटता.
अब भी जन्म लेते
राम,रहीम और यीशु
नाश करने
मन के विकारों का.
कब देखा तुमने -
ऐ मन
बदलती भाषाओँ पर
भावनाओं को बदलते.
अपने ही चारों तरफ देखो
लिखे जा रहे वेद , कुरान और बाइबल.
नाम बदलने से ,
भाव नहीं बदलते.
इतिहास कब दोहराए गए ,
सिर्फ नित नए
भेष में पाए गए.

भटके मुसाफिर

यह धुन तो
सदियों से बजती रही
ना जाने कितनो को
मदमस्त किया इसने.
नाचता रहा कारवां ,
इन्ही तरंगो पर
जब भी गुजरा इस और.
पर तुम ,
कहाँ गुम हो गए एकाएक,
अजीब सी रहगुजर पर.
बिखर गए
स्वप्न सारे
मोतीयों की तरह.
कैसी धुन गूंज रही,
कानों में तुम्हारे.
क्या नया सुर छेड़ा
किसीने कानों में तुम्हारे ?

ऐ भटके मुसाफिर
लौट आओ -
दिन ढलने से में
अब देर नहीं.
कहीं ऐसा ना हो-
कोई पुकारने वाला न रहे.
महाविनाशक धुन की गूँज ,
अनर्थ.
शायद कोई और हो
पर तुम ऐसे गुम ना होना.
चूहों की तरह नाच-नाच
इन धुनों पर मत चलो-
उस नदी के मुहाने.
गतिमान तुम नहीं .
सतरंगी हो कर भी
ज्ञान बिखर रहा फूलों पर.
मत करो रंगों को अलग.
कुछ नहीं आयेगा हाथ.
कुछ नहीं जता पाओगे
शब्दों में उलझ.
न जाने पल
कितने सिमट रह गए ,
इतिहास के पन्नों में
तुम भी नहीं
रोक सकोगे
इन पलटते पन्नों को.

Tuesday, October 11, 2011

बातें

कैसी कैसी बातें
कहाँ-कहाँ से आती
कहाँ-कहाँ तक ले जाती.
शुरू जाने कब होती
जाने कब- कहाँ
ख़त्म होती.
दिन हो या रात
गर्मी या बरसात
भूख लगी या प्यास
जल में थल में या
गगन विशाल में
हर तरफ
सिर्फ बातें
हर तरह की बातें.

बातों से जन्म
ले रहीं नयी बातें,
या सिलसिलावर बातें.
कोलाहल करती या
गूंजती सन्नाटे में .
कुछ जरूरत नहीं-
जब करनी हो बातें.
न आँख न कान,
न जुबान
फिर भी पनप लेती- बातें.
बंद कर लो आँखें -
चुपचाप घिर जाता सन्नाटा
उभर आते जाने कितने चित्र
दीवारों पर, सडकों पर,
इस स्मृति पटल पर-
फिर शुरू हो जाती
अनगिनत बातें.

कोई पेड़ होंगी -
जड़ों सी फैलती,
टहनियों सी लचकती,
कोंपलों सी फलती,
चूमने गगन मचलती,
हर पल- घिरा छाओं में इनके.


मासूमी बातें,
मर्दानी बातें , जनानी बातें,
बतियाती आपस में- बातें.
समा प्रेम का बांधती,
मिलाती अजनबियों को
अपनों को करती बेगाना
देश विदेश की समस्याएं
हल करती - बड़ी बातें, छोटी बातें.


जिन्दों की बातें,
मुर्दों की बातें.
कल की बातें -
होती आज- और
धीरे धीरे बातों में
ढल बन जाता- कल.
बोलती बातें,
चुप्पी साधी बातें
बातों के बीच
जाने कितनी -छिपी बातें.
कविता में बातें,
कहानी में बातें
कलम की स्याही में,
किसी के आंसूओं में
घुली, सहमी सी ,
निकलने को मचलती-
बेकरार बातें.


कभी साथ चलती
तो कभी ठहर जाती
जाने किसका इंतज़ार करती,
रास्ता बुहारती.
गुजर जाते
काफिले अजनबियों के
फिर भी पथराई आँखों में -
जुगनू सी चमकती बातें .
कुर्सी पर बैठे - बैठे ,
दूर गरीबों का पेट पोसती,
कहीं किसी के बुढापे की लाठी
बनती कोसों दूर रह भी.
सारे हाल सुनाती,
कचोटते , कसमसाते मन का
उफान ठंडा करती
कहीं किसी को बेकल,
बेचैन करती बातें ,
सिर्फ बातें-
इधर उधर की बातें.


समुन्दर की लहरों सी,
सर पटकती रेत पर
पर सीमा नहीं उलान्घती ,
इस छोर से उस छोर तक
सीमाहीन नज़र आती
कहीं सोच विचार की
तो कहीं बेकार की बातें.
प्रेम की बातें , घृणा की बातें
सत्य की बातें, झूठ की बातें
घेर लेती कभी तो
कभी मुक्त करती.
छूती बातें , अछूती बातें.
सृष्टी से पहले की बातें
प्रलय के बाद की बातें
जो देखा , जो ना देखा
जो ना सुना, ना समझा
फिर भी सबकी बातें.


टकरा आपस में गूंजती
मन को कभी बींधती तो
कभी मरहम लगाती
यही नयी पुरानी,
कच्ची पक्की बातें.
गुलमुहर के पेड़ पर चहकती,
किसी सितारे के जन्म पर गूंजती,
कभी कानों तक पहुँचती ,
कभी मन को छु लेती
धरोहर में मिलती कहीं,
कोठरी में कहीं कैद
सदियों से
बातों की बातें, बातों सी बातें.
अंधी बातें, गूंगी बातें
ठहरी बातें, उड़ती बातें
जबाबी बातें, सवाली बातें
सरकारी बातें, फरियादी बातें.
पुल सा बांधती, या दरार पैदा करतीं .
समझ कर भी नासमझ बनी -
बासी बातें ताजा बातें.


बातों से खबरें बनती
खबरों से बातें
ख़त्म जहां होती ,
वहीं शुरू हो जाती
ना सिर -न पैर ,
सूरी - बेसुरी बातें
रंग -बिरंगी , फीकी स्याह बातें
थकी - थकी सी, अथक बातें.
झूठ को सच करती,
सच को करती झूठ
कहीं दिन में तारे दिखाती,
कहीं सपने मीठे.
कहीं जहर घोलती,
कहीं सरस अमृत.
पल में सुलझती,
कहीं सदियों उलझी
आपस की बातें,
देश विदेश की बातें.
झोपड़ों में रह
ख्वाब महलों के दिखाती
महलों को दिखा झोंपड़े डराती.
रेगिस्तान की मरीचिका जैसी
परिवेश अपना पल में बनाती
देश में रह विदेश को मचलती
टीस देश के विदेश में जा जगाती.
घर से दूर घर बसाती,
फिर भी याद घर की दिलाती
तरसाती बातें, मनभावन बातें.
महक संस्कृति की फैलाती
दिल खोल कहने पर भी,
रह जाती अनकही.
बुझे दीये की लौ पर थिरकती,
भाई - चारों के नारों पर अटकी,
नए अखबार पर बासी खबर सी,
रोजमर्रा की चालू चाय सी
धरम - करम की,
आस्तीन के सांप सी.
पती- पत्नी सी नरम -गरम
रूठी कभी तो कभी मानी.
ऐसी वैसी , सबकी जानी - पहचानी बातें.
ट्रेन का सफ़र हो या
सफ़र जीवन का
कभी आँखों से, कभी जुबान से
अजनबियों से मिलती, बिछुड़ती
उमंगे दिल में भरती,
मायूस मन को कचोटती.
सुख दुःख दिल के बांटती,
राज दिल के खोलती.
मिलने की घड़ी हो या
बिछड़ने का पल
संजो मोती सा,

हर पल संजोती
सुख दुःख बांटती ,
राज दिल के खोलती.
रात भर सहर को सराहती
देख सामने तुम्हे
टुकुर टुकुर निहोरती.
चाहती कुछ , कहती कुछ,
होता कुछ.
जाने पर - बस कोसती
दिल मसोसती
फिर भी जान जाती
मेरे दिल की बी , तुम्हारे दिल की बी


पानी की हो या पत्थर की
हाशिये पर खड़ी,
लकीर के फ़कीर सी
रेगिस्तानी ठूंठ सी बातें.
हिचकोले लेती नाँव सी
ना कोई कहता, फिर भी
हवा में - ठहरी ठहरी सी
चांदनी में नहाती,
सूरज में तपती कितने रूप धर ,
भाषा के ओट
जीवन रस उन्देलती
तेरी मेरी तस्वीर की-
कोरी , रंगीन बातें.


कामायनी , मधुशाला ,
गीता , कुरान में
मनु, गांधी, तुलसी,
नानक, कबीर की खजानों में दबी.
मखियों सी फलों पर भिनभिनाती
मधुमखी सी शहद बटोरती
सदियों गूंजती जानी पहचानी बातें .
पत्थरों को तराशती
मजदूरों की बातें
पिरामिड, ताजमहल, या
फिर पानी में भीगती
झोंपड़ी की बातें.
सीमा पर खड़े जवान की,
लहलहाते खेत देख किसान की
बेजुबानी, पसीने में तरबतर बातें.
मोनालिसा के मुस्कान की,
नन्हे मुन्ने की आड़ी तिरछी लकीरों की
उलझी कहीं हाथों की लकीरों में
पंडित की पोथियों में
धुल सी जमी.
बेबस का तन ढांपती,
मूंछें हिटलर की नोचती
साथ दे साए में गुम हो जाती.
चक्रव्यूह में उलझाती चंचल बातें,
व्यर्थ बातें, प्रतापी बातें.


ऐसे कैसे कह दूं भरी महफ़िल में
तेरे मेरे इजहार की, इनकार की,
तकरारी बातें.
सुना है कितनों ने,
बातें करती बातें.
कभी गुनगुना रही
कभी उमड़ घुमड़ रही
गरजती , बरसती, लरजती , तरसती
सारे जीवन का , रहस्य
आपस में सुना देती बातें.
साथ समय का दे
हर पल जीवन मृत्यु से रह परे
युगान्तारी बातें, अविनाशी बातें,
अलौकिक बातें.
अचर, अमर, अपराजेय
कभी कभी हो जाती
ऐसी बातें.
जो कवि ने लिखा,
और मनीषियों ने जो कहा
पाठकों ने पढ़ा-
पर कहाँ मन को भरमाया.
कितनी अधूरी,
फिर भी दोहराती
नयी नवेली,
सजी सजाई- पुरानी हवेली सी
खंडहरों से लटकती
झाड़ फानुस की बातें.

मनभावन

फूल नर्गिस के,
भाते मन को मेरे.
भीनी- भीनी खुशबू -
तैरती ,भिगोती
तन - मन मेरा.
वो रंग बिरंगी पंखुड़ियां
धीरे धीरे खुल रही
कलियाँ चुपके से ,
चुराकर नज़रें सबसे
देख रहीं संसार.
जाने कितने रंग
घुल मिल रहे
लगता देखता ही जाऊं .
महसूस करूँ- यह सुगंध.
क्या नाम दूं इनको -
कितनी अलग- थलग.
लचक जाती , डाली सारी
जो चलता हल्का हवा का झोंका.
हरे हरे पत्ते दोल उठाते,
मदमस्त हो जाते.
जो पीले पत्ते झड़ जाते -
कोंपले दिखती वहाँ

किसने पूछा ?
कौन छिपा वहाँ?
सिर्फ हल्की सी छाया .
हाँ- मैंने पूछा-
देखा कभी नर्गिस का पेड़?
क्या होता?
कहाँ खिलता नर्गिस का फूल?
बताओ - कब देखा?
कहाँ देखा-

कौन हो तुम ?
धुंधला नज़र आ रहा.
यह कैसे प्रश्न-
क्यों दूं जवाब तुम्हे-
इन सवालों के जवाब.
कितने जवाब दूं -
नहीं जवाब पास मेरे
जवाब इतने सवालों के.
कब होगा ख़त्म -
सिलसिला मुझसे जवाब सुनने का.
क्यों पूछते मुझे-
अपने सारे सवाल.
जो मैंने कहा- सुनो
सिर्फ कहा नहीं-
जवाब देने या
सवाल तुम्हारा सुनने.
फूल नर्गिस के,
भाते मन को मेरे.
बस यही सुनो,
मनन करो.

अच्छा तो
देखा नहीं तुमने फूल नर्गिस के.
कैसे महसूस की खुशबू इनकी?
कहाँ देखे अनगिनत रंग?
कब देखी लचकती डाली ?
कैसे भाये मन को तेरे?
जब देखा ही नहीं.

छाया में जिसके तुम खड़े -
उस बाग़ से आ रही खुशबू
जाने कितने फूल खिल रहे.
यह देखो खेत धान के -
लहलहाती बालियाँ
उस रहट से निकलता पानी
झर झर सींच रहा -
मिट्टी किसान की.
सोंधी खुशबू आ रही खेत से.
क्यों नहीं भाता.
मन को तुम्हारे?
इतना सब देख रहे,
महसूस कर रहे.
फिर क्यों भाता मन को
जो ना देखा,
ना महसूस किया?
पत्थरों में दब गया -
सदियों पहले
तस्वीर बन जम गया-
कुरेद कुरेद मिट्टी निकाली
तभी उभर कर आयी -
पहचान उसकी रंगों का ,
खुशबू का बस नाम-
किसने दिया नाम नर्गिस
सुना सुनाया , पढ़ा पढ़ाया -
कैसे भाया ?
कुछ तो जवाब होगा.

तो क्या-यह सब,
जो आज दिख रहा
भाएगा सदियों बाद-
किसी और को.
जो आज- उससे अनभिज्ञ.
जो शून्य-
वो मनभावन,
श्रद्धेय -
कौन देगा जवाब?
अगर तुम रहोगे - मौन.

कहाँ हैं सब

ऐसी एक धरती
गगन चूमने को तरसता.
ऐसी एक नदी -
मिलने को सागर
हिलोरें लेता.
ऐसा ही एक झोंका-
आंधिया समेटने को मचलती.

समय से परे-
सब कुछ बंधन मुक्त,
उन्मुक्त.
कितने युग -
ढलते गए पलों में.
पर कहाँ- यह सब?

जाने किसे थामे,
घूम रही धरती-
कितने असह्य बोझ
सीने पर थामे.

जाने कितनी बूंदे ओस की
संजो नित नए मोड़ से
गुजर रही वह नदी
बेसुध.

जाने कितने मंजर,
समेटे आगोश में अपने
बहे जा रहे झोँके
वो भी अनवरत.

तहखाने का अँधेरा

कैद कर रौशनी ,
पिटारे में अपने
तहखाने में उन्देलता.
बार-बार लगातार -
दीवानगी मेरी,
मिटा देती सारी थकान.
हर बार भर देती,
ताजा दम.
अचानक -
हाथ हल्का सा
रख पीठ पर-
पूछा एक अजनबी ने.
क्या है , माजरा?
देख उसे - पोंछ पसीना-
कहा मैंने- रौशनी भर रहा-
तहखाने में अपने.
जाने कब से-
घुट रहा
अँधेरे में.
सदियों से झांका तक नहीं.
बदबू, सीलन -
दूर करनी अब.
संजो रखना-
सारा सामान.
इतना बड़ा तहखाना-
इतना सा पिटारा,
देर कुछ और लगेगी,
पर - भरेगी रौशनी.
रख पिटारा सर पर -
मैं चलता बना
तहखाने की ओर.
हल्की सी- असमंजी मुस्कान
तैर गई, अजनबी के लबों पर-
उसके शायद यही देखा मैंने.
जब लौटा - अजनबी वहीं था,
हौले से कहा- सुनो बंधू
कभी कोई खिड़की या
रौशनदान खोल तहखाने का-
देखा तुमने.
जरा सी बदल दो सोच अपनी -
फिर देखो - सूझता कैसे समाधान.
जो क़ैद कर रहे -
पिटारे में अपने
अन्धकार है.
भर रहे तहखाना अपना-
सिर्फ अन्धकार से.
जो घिरा रहता सीमाओं से,
बंधा रहता दीवारों से
वही होता अन्धकार.
जो सीमाहीन , उन्मुक्त
वह - प्रकाश.
और अजनबी -
चुपचाप धीरे- धीरे चलता बना.
दूर तक ओझल होते -
देखता रहा मैं.


कौन था- कोई बहुरुपिया
कोई हमदर्द?
बना कर देखूं -
एक दरवाज़ा
या खोलूँ वह आधी जमीन पर
झांकती खिड़की .
जो क़ैद सदियों से
घुट रहा तहखाने में -
क्या घुल जाएगा,
इस धरा पर बिखरी रौशनी में.
चमत्कार पर करूँ भरोसा या
फिर भर पिटारे में रौशनी-
ले जाऊं तहखाने तक .
क्या अनर्थ होगा?
होगा तो भी- जल्द,
बंद कर लूंगा खिड़की.
कंपकंपाते हाथों से-
हल्की सी खोली ,
खिड़की मैंने.
असंभव ,
प्रतीत होने लगा संभव.
रीत गया अन्धेरा
नहाने लगा तहखाना-
रौशनी की किरणों में.
पूरी खोल दी- खिड़की मैंने.
खेलने लगा रौशनी में-
तहखाने का हर कोना
खुशबू मेरी बगिया की
भर गयी तहखाने में.
हिलोरें ले रहा- मन मेरा,
पर कौन था अजनबी ?
कहाँ गुम हो गया-
इक पल में. अपना ही चमत्कार-
देखा नहीं उसने.

दिन बीते-
बीते जाने कितने साल
भूला मैंने अजनबी -
शायद -भूला नहीं,
उसने मुझे.
आ पहुंचा एक दिन
ड्योढी पर मेरे.
देख खिला - खिला
तहखाना
फिर मुस्कुराया-
बोला- देखा बदलती सोच का नतीजा .
क्या रखा उस पिटारे में?
अनायास- मैं बोल पड़ा-
क़ैद कर रखा अँधेरा सारा.
सोचता - जला
राख कर दूंगा-
साथ दोगे मेरा तुम.
नहीं- हौले से बोला वह.
जैसे क़ैद नहीं होती रौशनी,
वैसे जलता नहीं अँधेरा.
आनंद लो - प्रकाशमय करो हर कोना
दूर हो जाएगा अँधेरा.
घुल प्रकाश में गुम हो जाता अन्धेरा-
मैं खडा रहा- यथावत,
कुछ बात और करूं उससे,
पर - फिर ओझल हो गया
वह अजनबी-
हमदर्द मेरा
दे उजाला - भर गया आनंद.

१५/०५/११

ताजी हवा

मैं हूँ हवा-
ढलती , लुढ़कती,
मदमस्त.
चली आ रही,
उस विन्ध्याचल से-
जहां उगता सूरज भी -
चुपके से .
मुझमें ही विचरते -
निर्भीक गीध चील कौवे
और एक सहमी सी कोयल.
उसे मैं ले चलती-
इस जंगल से उस जंगल.

कभी - कभी
अनंत सागर पर
लहरों को धकेलती
बादलों तक पहुंचाती
बतियाती - और फिर चल पड़ती.
कई बार उड़ाया है

इस जमीन की धूल को
अंतहीन गगन तक.
फैलाया कोहरा ,
और क़ैद कर लिया
नन्ही हथेली पर.

मैंने छुआ है सिंह , सियाल और
इंसान.
उन्ही की गंध - फैलाई
इस बाग़ में.
क्यों रोकते मुझे ,
बाँध नहीं पाओगे,
क्योंकी - मैं नहीं सीमाबद्ध,
हर सीमा से- मैं परे.

१४.०९.१०

प्रेम

यह कैसा वीराना
थम गयी
लहलहाती हवा.
फूलों के रंग-
तैरते खुशबूओं में
उतरते पहाड़ों से नीचे.
रौशनी सूरज की
पेड़ों के झुरमुटों से
तकती फिर
छिप जाती.
जाने क्या देख
पल भर को थम
सिहर रही - सारी प्रकृती.
आँखे बोल रहीं-
पुतलियों से सुन रहे-
तन्मय खामोश लब.
सारी दास्ताँ,
धड़कनों की
दूरी सदियों की-
पल में तय कर रहा-
आज समय.

२४/१०/१०

प्रेम की डोर

बसता है
एक कंकाल
ओढ़े मांस चमड़ी.
आर पार हो जाती -
बातें कील सी चुभ कर -
और लटकता रहता
उस पर कंकाल .


चारों तरफ
उड़ता फिरता मन
ना कुछ देखता,
ना कुछ सुनता-
जतन करता-
तरसता बहलाने को
कभी पत्थरों से,
कभी हीरों से.
हाथ उठते
कभी छूने गगन
तो कभी किसी का मन.
पैर चलते-
रौंदते धरती.
तैर पार कर जाते -
सागर अनंत.
आँखे- बंद हो कर भी
देख लेती आरपार.
पर कभी खुली होकर-
लगती पथराई सी.


हल्का सा पत्ता ,
टूटे इस जंगल में
सुन जाता कानों को
पर अनसुनी कर रहा -
कूक कोयल की.

चाह

इन आँखों से
गुजरे अनगिनत -
सुख दुःख
सुर्ख मोती सा
बन दिख रहा -
सागर अथाह.
कितने पतझड़ ,
कितनी बहारें
आते गए ,
गुजरते गए.
किरण हल्की सी
बन सज गया
सूरज.
जाने कितने
वीराने आबाद किये
इन हाथों ने-
किसी से कन्धा मिला.
कितनी बड़ी चाह बन-
मन में घुलती रही ज़िंदगी.

कमरा

जाने कितनी बार सोचा
एक बार कुंडी खोल
झांक लूं बस-
पर वो ड्योढी
लांघने की हिम्मत नहीं होती.
इतनी बड़ी हवेली,
इतने सारे कमरे
सब सजते-
होली, दीवाली ,दशहरे,
झूमते, जगमगाते, रंगीनियाँ बिखेरते.
कभी ना देखा सजते, संवरते
इस कमरे को.

अँधेरा ही होगा-
उस कमरे में
कोई खिड़की तक नहीं देखी,
न रोशनदान-
जहां से किरण सूरज की
या चाँद की चांदनी
छम् से आये-
और लकीर बन रह जाए.
जबसे धरोहर में मिली-
यह हवेली
सुनता यही पाया -
उसे मत खोलना.
क्यों -
अपवित्र हो जाऊँगा,
या फिर अछूत
यह कमरा.
जवाब किसी ने न दिया.
जहां कहीं भी जाऊं
बाजार में, दफ्तर में,
महफ़िल में, दोस्तों में,
देश में , परदेश में-
सूनापन कमरे का-
अक्सर कचोटता .
ऊब जाता मन
पल को-
फिर उलझ जाता
अगले पल- दुनियादारी में.

सीलन कमरे की
भिनभिनाती हवेली में सारी.
शायद सीलन ही होगी
जो निकल रही-
दरवाज़े के ओट से.
दिन तमाम ढूढता रहा
जाने कहाँ -
नज़र नहीं आती
घर की बिल्ली -
छिप गयी होगी
या ग़ुम हो गयी.
कम्पन हुआ था -
हल्का सा, भूकंप था कोई.
थर्रा गयी हवेली सारी.
हिल गयी दीवारें,
चटख गए दरवाजे.
तभी से नदारद
बिल्ली हमारी.
लम्बी एक दरार
नज़र आयी-कमरे में.
कहीं बिल्ली इसमें तो
दुबक नहीं गयी.
जरा देखूं झाँक कर
इसी बहाने
पता तो चले,
क्या छिपा इसमें.

अजीब सा नज़ारा-
अनगिनत जुगनू
भीनी भीनी सुगंध-
मन को अधीर करती.
आँखें देख रही -
कुछ भी अभिन्न नहीं
सब कुछ नज़र आता -
नज़र दौड़ती जहां.
जहां ना देखो- अन्धकार.
आँखों में चमक रहे -
सूरज और चाँद साथ- साथ,
अन्धेरा -उजियारा,
कोई बड़ा ना, कोई छोटा
ना कोई अच्छा ना कोई बुरा.
क्या सब कुछ , यहीं सिमट गया.
ठहरो ज़रा सबको बुला लाऊँ-
सारे घरवाले भी देखें-
अब कोई मना ना करे
पर पाँव
उठते नहीं.
सारा शरीर मगन -
देख अद्भुत दृश्य.
क्या है?
एक कमरा सिर्फ.
पहले आ जाता-
व्यर्थ नहीं जाते
वो सारे
कसक मन के .

किस्मत की लकीरें

किस्मत की लकीरें

जमाने की चाल में खो, भूल गया खुद को
बिछड़ों की यादों में, बिछड़ गया अपनों से.

हर पल गुजरता रहा , पल पल वह मरता रहा
जीने की चाह में, जीते पलों को खोता रहा.

अनजाने मुसाफिरों में, जाने किसे ढूँढता रहा
जिस भी कारवां से गुजरा, अजनबी सा बन रह गया.

जब भी मिलता, मुस्कुराता हुआ नज़र आया
मुस्कुराने की चाह में, सैलाब आंसूओं का छिपाता रहा.

खता न जाने क्या हुई, मनाता रहा सदियों उसे
इसी जूनून में, अदा रूठने की खुद भूल गया.

महफ़िलों की रौनकों में, नज़र आता वो गुमसुम
किताब ग़ज़ल की ज़िंदगी उसकी, फुरसत किसे उसे पढ़ने की.

कुरेद रहा था वह, लकीरें अपने हाथों की,

किस्मत बदलने की, चाह अजीब थी.

जब मिले तुम्हे कहीं, कहना यह राज उसे
बूँद एक पसीने की, बदल देती इतिहास की तकदीरें.

Wednesday, October 5, 2011

नयी खिड़की

नयी खिड़की

एक नयी-
खिड़की ही तो
बनाई थी
घर में.
क्यों मचा, कोहराम-
शहर में.

सिर्फ-
देखना भर,
चाहता चाँद को
बिखेरते-
चांदनी अपनी.
क़ैद- नहीं,
करना चाहता उसे.

देखना चाहता दूर तक-
इस गली को,
जो अपनी-
चाल सर्पीली करते,
छिप जाती -
जा जरा सी दूर.

भले ही,
कितनी भी उड़े गर्द
घर में मेरे आए-
बंद नहीं करनी-
यह खिड़की.

तुम भी आओ,
देखो यहाँ से-
मेरे साथ,
इस पेड़ को छाओं -
घुमती-फिरती
छमछमाती सी -
आँगन में मेरे.

पर मत तोड़ना
फलों को.
नाराज मत करो,
इन चहचहाती चिड़ियों को-

चाहे नाराज रहे
सारा शहर.
खुली रखनी
मुझे मेरे घर की
नयी खिड़की

कौन बसा

कौन बसा

कोयल की कूक
सुन सिहर सा जाता मैं.
मन को गुदगुदाती .

मचल उठता-
मन वही-
गुजर फूलों के पास
पाकर भीनी भीनी सुगंध.

ठहर कर
क़ैद कर लेने को
जिद कर उठता,
यही मन
जब सर्द गर्म हवा छु -
चल पड़ती आगे आगे.

सब कुछ लगता
सुंदर कभी देखकर,
कभी छु कर
कभी सूंघ कर,
कभी महसूस कर.

पर ये सभी
क्या नश्वर.
नहीं,
या फिर-
अब तक सोचता
फिर रहा यहाँ वहां -
ढूँढता रहा.
हर कण- कण .

कौन बसा?
जो बार-बार
अपने होने का
एहसास दिलाता-
इन सब में बस कर-
क्या वो भी नश्वर?
१४.०९ .१०

थकान

थकान

दिन भर,
थक हार कर,
काम से चूर,
लोगों की बातों से परेशान
जब भी मैं सो जाता-
मेरे स्वप्न में,
एक - स्वान भूकता.

बना तरह-तरह के चेहरे डराता.
मेरे मन कोने में
बसे नन्हे बालक को.
और वो बालक -
भागता-फिरता,
डरा सहमा सा.
पर वह स्वान नहीं रुकता,
पीछा करता.

हंसी विकराल उसकी,
अट्टहास करता,
मिट्टी में लोट पलोट हो
खुजली अपनी मिटाता .
लपलपाती जीभ-
बेकल करती
मचल उठता-
खा जाने को बेचैन-
मांसल, बेबस को.

नन्हा मासूम-
चढ़ जाता,
पेड़ की ऊँची शाख पर,
छिप बैठता
मधुमखी के छत्ते में
मधु में लिपटा -
स्वाद लेता.
अनजान -
नीचे बैठे भूंकते स्वान से.

मैं स्वप्न में ही सिहर जाता.
क्या होगा
जब टूटेगा छत्ता.
कभी तो भंग होगा,
स्वप्न.

मैं-वही सब
स्वप्न में देखता
जो दिन भर गुजार आता.