Saturday, October 29, 2011

मत पूछो, कहाँ ?

रुक गया हूँ मैं -
पूछते हो , क्यों?
परेशान सा हूँ ,
पर थका नहीं.
न जाने कितनी
मंजिलें तय की.
रुकते भी हैं, कहाँ
रास्ते मंजिलों पर .
पर मैं
किसी मंजिल की
तलाश मैं भी नहीं.
न जाने मोड़,
मिले कितने,
कितने चौराहे ,
कितने दोराहे .
कभी कभी सोचता-
मैं बदलता रास्ता ,
तो कैसा होता.
कितने कारवां
छोड़ दिए.
कितनों के साथ
चल पड़ा,
किसी भी
असमंजस में
ना था कभी भी.

मोती ढूँढने
निकला सफ़र में.
रास्तों में पड़े -
पत्थरों से जी
बहलाता रहा.
कभी सोचा ही नहीं
कहाँ मिलते हैं
रास्तों पर मोती .
बेचा है पत्थरों को
मोतियों के भाव.
सच बताना चाहा
पर सुनता है - कौन?
मौन धारण कर लिया
जब घिरा भेड़ चालों में.
इस मन को,
इस तन को.
परेशान कभी हो जाता
बटोरते पत्थर,
तो गुम हो जाता
कारवां में.

अब फिर चलना
उस जंगल की तरफ
चाँद सितारों की रौशनी

टिमटिमाती सही
कोई पगडंडी
न मिले तो नहीं.
नीले गगन की
तान चादर मिटाउंगा थकान.
बुझाउंगा प्यास
झरनों से
जो बहे जा रहे
कलकल, छलछल
पर अब पूछो मत कहाँ?

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