Sunday, October 16, 2011

भटके मुसाफिर

यह धुन तो
सदियों से बजती रही
ना जाने कितनो को
मदमस्त किया इसने.
नाचता रहा कारवां ,
इन्ही तरंगो पर
जब भी गुजरा इस और.
पर तुम ,
कहाँ गुम हो गए एकाएक,
अजीब सी रहगुजर पर.
बिखर गए
स्वप्न सारे
मोतीयों की तरह.
कैसी धुन गूंज रही,
कानों में तुम्हारे.
क्या नया सुर छेड़ा
किसीने कानों में तुम्हारे ?

ऐ भटके मुसाफिर
लौट आओ -
दिन ढलने से में
अब देर नहीं.
कहीं ऐसा ना हो-
कोई पुकारने वाला न रहे.
महाविनाशक धुन की गूँज ,
अनर्थ.
शायद कोई और हो
पर तुम ऐसे गुम ना होना.
चूहों की तरह नाच-नाच
इन धुनों पर मत चलो-
उस नदी के मुहाने.
गतिमान तुम नहीं .
सतरंगी हो कर भी
ज्ञान बिखर रहा फूलों पर.
मत करो रंगों को अलग.
कुछ नहीं आयेगा हाथ.
कुछ नहीं जता पाओगे
शब्दों में उलझ.
न जाने पल
कितने सिमट रह गए ,
इतिहास के पन्नों में
तुम भी नहीं
रोक सकोगे
इन पलटते पन्नों को.

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