Sunday, October 16, 2011

कलियुग

कलियुग का सूरज
चाँद बन फिर खिल उठता
शाम के ढलते ढलते.
कलियुग का सच
प्राण बन लहू में
बस जाता छुप छुप-
हवा में घुल कर.
कलियुग का इंसान
अब भी नरभक्षी ,
क़त्ल कर लगा देता
धर्म की मोहर.

दूर से देख रहा ,
चुपचाप बादलों में
उड़ता पंछी ढूँढते
नया बसेरा.
अब भी संजो रही -
नन्ही सी दूब
ओस से पानी की बूँद
सींचती, अपनी ही जमीन.
फूलों से ढकी -
एक पगडंडी -
जाने कहाँ गुम हो जाती.
न जाने क्यों -
चाह नहीं रही उसे
सड़क से मिलने की.

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