Sunday, October 16, 2011

ज़िंदगी

तमाम समय ज़िंदगी
भागती रही गलियारे में
और द्वार पर पहुँच
दुबक , बैठ गयी.

रौशनी के लिए
फिरता रहा जंगल सारा
जब देखी किरण
हल्की सी
भींच बंद कर ली
आँखें , उसने.

परत दर परत
सहेजता रोज रात चांदनी.
बिखेर देता
इधर-उधर
देख सागर पार सूरज.

शब्दों के ताने बाने बुन
देर सफ़र में रहा साथ,
फिर भी राही को
शिकायत ही राही
जब तनहा कर गया ,
मंजिल के पास.

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