Sunday, October 30, 2011

होली -भाई रे

पापा-
कौन हमारा है
राष्ट्रीय पक्षी -
मोर.
और राष्ट्रीय खेल
हाकी.
और राष्ट्रीय त्यौहार
मैं अवाक चुपचाप
ढूंढ नहीं पाया जवाब.
होली हो- तो कैसा हो,
जवाब ने तोड़ी खामोशी
लगा निद्रा मेरी भंग हुई
हूँ...तक ही
कह पाया
हो सकता है -
पर क्यों?
अनायास पूछ बैठा.
क्यों नहीं


बेटे ने-जवाब दिया.
त्यौहार होली का - रंगों का
खुशी बांटने का,
गले मिलने का.
कितना मजा-जो है.

वाकई .. सोचने लगा मैं
पर कहते हैं
मूर्खों का भी
यही दिन एक
होली का दिन.
हाँ बेटे.. होली
हो सकता है.. यकीनन.
होली हिन्दुस्तान में ही
खेली जा सकती .
मेरा भारत ही
जनक हो सकता
होली त्यौहार का.

मैं सोचता रहा
कहाँ से शुरू करूँ
कौन कौन से
जताऊँ कारण
और होली को
राष्ट्रीय त्यौहार बनाऊं.
आदि युग से शुरू करूं
जब पूर्वजों ने
वसुधेव कुटुम्बकम का राग अलापा
परिकल्पना की राम राज्य की.
गूँज हो रही अब तक
दसों दिशाओं में.
पर मंजिल से
उतनी ही दूर अब तक.
शायद पहली होली खेली थी
अयोध्या में
जब लात मारी थी
भरत ने मंथरा को ..
पर बड़ी देर से
छोड़ चुके थे
राज पाट राम ने
और होली मनाने
चल पड़ा समय
सरयू के पार.
सीता ने भी
मनाई होगी
जब बैठी थी नदी किनारे
परित्यक्ता, आसन्न प्रसवा, असहाय.
विहंसी सी हंसी
तैर गयी लबों पर
जब देखी अयोध्या ..
जगमगाती होली के
रंगीन रंगों में.
कोई अंतर नज़र नहीं पाया
लंका व अयोध्या में
राम या रावण में दोनों ने ही
परिहास किया
उसकी अस्मिता का .
एक ने महान बन कर
एक ने शैतान बन कर.
होलिका दहन हो रही थी
सरयू के उस पार और
मुस्कराहट के साथ
दो बूँद आंसूं टपक चुके थे.
क्यों नहीं खेली फिरसे
किसी ने लात मारी
उस धोबी को पर
देर हो चुकी थी.
होली के राष्ट्रीय त्यौहार
होने का बीज बोया जा चुका था.

युग बीता -
पांडू कौरव पधारे
पौधे को और सींचा.
नहीं टोका किसीने
द्रौपदी को हंसने से .
वो हंसी जो
महाकाल का रूप धर आयी
चुप्पी साधे देखते रहे
महारथी चीरहरण का तमाशा.
फिर भी लात नहीं मारी किसीने.
होलिका की लपटें
शोलों सी भड़क रही थी
गूँज रहा था स्वर
योगक्षेम वहाम्यम का.
चुपचाप मुस्कुरा रही थी
सीता द्रौपदी के रूप में.

समय और गहराता गया
पौधे को और सींचा गया
तीर कमानों के युग से
गुजरता गया समय.
अजीब से कश्मकश में
कलियुग में ठहर सा गया .
महामुर्खों के मेले ,
अब लग रहे
रोज यहाँ.
मेरा भारत महान- की
गूँज विदीर्ण कर रही
चारों दिशा.
एक लकीर नहीं खींच पाए
सदीयाँ बीत गयी
कट गए न जाने
कितने सर
बन गया नरक
जो गुलिश्तां था कल तक.
टूट रही मस्जिदें
छिन्न भिन्न हो रहे शिवाले.
स्कूल एक तक ना बन पाया
ऐसे बिखरी बिखरे चूने , ईंट और गारे .
भाषण होते विदेशों में
नेता ही नहीं अभिनेता भी
जुबान भूल गए.
अपनी राग अलापते -
सभी अजनबी.
किसी ने लात नहीं मारी
जब गोली दागी
किसीने सत्य अहिंसा के पुजारी पर .
फिर रहे गर्दभ
चहूँ ओर दिशाहीन
लादे अनमोल नगीने.

अंधे बहरे भाषण देते ,
अट्टहास लगाते
तालियों की गड़गड़ाहट -
गूंगों से.
दुबके कोनों में
सिहर रहे हंस -
देख बगुलों की चालें .
अंधे भागे जा रहे दिशाहीन -
आंधी की तरह पश्चिम दिशा को -
जला सभ्यता की होलिका.
महामुर्खों का सम्मलेन
रोज होता ,
रोज लग रहे विचित्र रंग -
विश्वासघात के, झूठे वादों के.
रंगीन सपनों में ,
वसुधेव कुटुम्बकम के,
राम राज्य के ,
महान भारत के.
रंगीन दुनिया ,
रंगीन दुनियावाले
मनाते होली -
पर एक दिन ही.
मैं सोच रहा था
सच कितना उगल दिया -
अनजान सही-
नन्हे से बचपन ने ,
जो अभी सो रहा ,
रख सर मेरी गोद में -
खो रहा रंगीन सपनों में.

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