Sunday, October 16, 2011

मौन मुखर

न जाने कितनी बार
गुजरा हूँ मैं -
द्वार से तुम्हारे
पर तुम वैसे ही -
जड़वत स्थित्वान .
जब भी देखा है-
कनखियों से
वही बाहें पसारे
अपलक नयन बिछाए
न जाने किसका तुम्हें इंतज़ार.
अभी तक -
यकीन नहीं होता कि
तुम हो खोये - खोये से
कई बार , सोचा मैंने -
पूछूंगा अगली बार
जब फिर गुजरूँगा -
इस द्वार से.
पर न जाने क्यों -
आज ठहर गया मैं,
और इछुक हो बैठा
कब हुआ?
ऐसे तो तुम -
कभी ना थे.
याद है ,
अब तक -
वो पल जब
झरनों सी चुलबुलाहट- थी
तुम में
गिरते थे क्षितिज से -
और भर देते थे-
गूँज इस ब्रह्माण्ड में.
विचरते समीर की तरह,
संचार करते नवजीवन ,
नवसुगंध और छिप जाते
सतरंगी धनुष बन-
सूर्य के प्रकाश में.
क्या सुना-
लहरों से तुमने
जब नदी बन मिलने गए -
सागर से?
या फिर रोका तुम्हे
हिमराज ने ?
कहीं क़ैद तो नहीं कर दिया
किरणों ने सीप में मोती की तरह.
मालूम है मुझे ..
सब सुन कर भी
अनसुनी कर देते हो.
सब देख
कर देते हो अनदेखा
और सब कह-
अनकही .
पर जानते हो क्या-
ठहर गया ,सब
जब से मूरत बन
बैठ गए तुम .
बिखरती नहीं ,
कलियों से खुशबू
हर डाली है घुटी - घुटी,
सहमी सी.
मिलते नहीं झरने -
किसी नदी से.
निगल लेती
रेतीली बस्तियां.
छिप गए अनगिनत इन्द्रधनुष -
सूरज की ओट.
अब तो गुजर रहा
ऐसा पतझड़ कि
काँप जाता मधुबन
देख बहारों के स्वप्न .
पर तुम अब भी
जड़वत , स्थितवान.
यह कैसा स्पर्श शीतल ,
स्पंदन भरा.
कोई तो नहीं
फिर किसने छु लिया .
छलिया- कहीं तुम्हीं तो नही.
पर तुम- मौन मुखर..
मैं नतमस्तक.

No comments:

Post a Comment