Sunday, October 16, 2011

पुरुषोत्तम -2

हे पुरुषोत्तम राम
तुम्ही तो बने रथ पथ
जिस पर गुजरा
रावण का अहम्
क़ैद कर सीता को.
मोड़ दिया था पथ-
अशोक वाटिका को
और बन बैठे अशोक वृक्ष
जहां हर पल -
संजोये रखा
जनकदुलारी को.

तुम्ही बने
उस अगन का तेज
जिसमें ढाली ,
अपनी हिय-प्रिय को.
तुम्ही तो थे
वो पर्ण कुटीर
जहां सही थी
प्रसव वेदना ,
कब जान पाई
अवध नगरी.

कितनी सूक्ष्मता से
पिरोया जीवन का आधार.
हर पल हर कण में
अब तक गूँज रहा
नारी शोषण का सन्देश
मायावी मृग वध का परिणाम.
पर तुम अविरत निश्छल
तब भी - अब भी.

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