Sunday, October 16, 2011

क्षितिज के पार

किसका है इंतज़ार -
इस झुरमुट के पीछे से
सूरज के उगने का?
हमने तो देखा नहीं.
देखा तो सिर्फ एक गुबार -
धूल भरी आंधी .
कहीं और तो नहीं
छुप गया यह सूरज
बादलों की ओट में-
या फिर क्षितिज के उस पार.
अन्धेरा नहीं है
पर उजाला भी तो नहीं.
कैसी है यह वेला-
सांझ की या सुबह की.
वक़्त जाने कब से थम गया

इतने सवाल मुझसे क्यों?
खुद ही तलाशते नहीं
क्यों- जवाब .
हमने तो उम्र गुजारी है
जुगनुओं की रौशनी में.
अब नहीं इंतज़ार छुपे हुए सूरज का .
तूम छिपे रहो बादलों में
या क्षितिज के पार .
अब कोई फर्क नहीं
सांझ हो या सवेरा
हल्की सी हवा ही चुरा लेती -
सारी थकान.
नमन है तुम्हें -
क्या तुम सृष्टा हो..
या फिर ... कौन हो तुम?

फिर सवाल.
हम तो हैं
मुसाफिर आज यहाँ तो-
कल क्षितिज के पार.

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