किस्मत की लकीरें
जमाने की चाल में खो, भूल गया खुद को
बिछड़ों की यादों में, बिछड़ गया अपनों से.
हर पल गुजरता रहा , पल पल वह मरता रहा
जीने की चाह में, जीते पलों को खोता रहा.
अनजाने मुसाफिरों में, जाने किसे ढूँढता रहा
जिस भी कारवां से गुजरा, अजनबी सा बन रह गया.
जब भी मिलता, मुस्कुराता हुआ नज़र आया
मुस्कुराने की चाह में, सैलाब आंसूओं का छिपाता रहा.
खता न जाने क्या हुई, मनाता रहा सदियों उसे
इसी जूनून में, अदा रूठने की खुद भूल गया.
महफ़िलों की रौनकों में, नज़र आता वो गुमसुम
किताब ग़ज़ल की ज़िंदगी उसकी, फुरसत किसे उसे पढ़ने की.
कुरेद रहा था वह, लकीरें अपने हाथों की,
किस्मत बदलने की, चाह अजीब थी.
जब मिले तुम्हे कहीं, कहना यह राज उसे
बूँद एक पसीने की, बदल देती इतिहास की तकदीरें.
Tuesday, October 11, 2011
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