Tuesday, October 11, 2011

ताजी हवा

मैं हूँ हवा-
ढलती , लुढ़कती,
मदमस्त.
चली आ रही,
उस विन्ध्याचल से-
जहां उगता सूरज भी -
चुपके से .
मुझमें ही विचरते -
निर्भीक गीध चील कौवे
और एक सहमी सी कोयल.
उसे मैं ले चलती-
इस जंगल से उस जंगल.

कभी - कभी
अनंत सागर पर
लहरों को धकेलती
बादलों तक पहुंचाती
बतियाती - और फिर चल पड़ती.
कई बार उड़ाया है

इस जमीन की धूल को
अंतहीन गगन तक.
फैलाया कोहरा ,
और क़ैद कर लिया
नन्ही हथेली पर.

मैंने छुआ है सिंह , सियाल और
इंसान.
उन्ही की गंध - फैलाई
इस बाग़ में.
क्यों रोकते मुझे ,
बाँध नहीं पाओगे,
क्योंकी - मैं नहीं सीमाबद्ध,
हर सीमा से- मैं परे.

१४.०९.१०

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