Sunday, October 16, 2011

रुकी हुई नाँव

समुन्दर में
डोलती फिरती-
हिचकोले लेती नाँव.
यह किस मुहाने से टकराई .
वो तूफानी
लहरों के साए
वो अठखेलियाँ
अथाह, अनंत- समुन्दर में
सपने से लगते .

इस दलदली
मद्धम मुहाने पर.
कभी देखा
किसी ने
समुन्दर को
नदी की ओर जाते.
प्रकृति ही नहीं
सागर की ऐसी.
फिर यह नाँव -
क्यों चल पडी?
शायद रुख हवा का
ऐसा हो.
पता ही न चला -
किस पल
बदला रुख, हवा ने.
पतवार तो
थी हाथ में
फिर रुख हवा का
बदला भी तो क्या?
अक्सर कचोटता
यह सवाल.

अब तो सिर्फ-
इंतज़ार,
फिर तूफानों में
सांस लेने का.

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