Saturday, October 29, 2011

मंजर

इतने सालों में
सब कुछ बदल सा गया .

वो पगडंडी
जो गुजरती थी
मेरे घर के बगल से
अब विस्तृत हो गयी
किसी उफनती नदी सी
निगल रही
अपने ही किनारों को.
पगडंडी के किनारे,
खड़े हो देखता ,
रोज गोधूलि
पर अब सिर्फ
उगलता देख रहा
जहरीला धुआं
यह सर्पीला रास्ता.
लगा है रेला
अनगिनत गाड़ियों का .
अभी तो गुजरे हैं
वो दिन -
जब उस पगडंडी पर
मैं उछलता कूदता
साथियो के साथ
भागता- फिरता
उन लहलहाते खेतों के बीच
छिप जाते ,
न जाने कितने घंटे
पलछिन की ओट.
नहर एक गुजरती थी
लहलहाते खेतों के बीच,
वहीं से बहता ,
कलकल करता पानी ,
सींचता , हरियाली बिखेरता
गुम सा हो जाता
उस पहाडी के पीछे .
अजीब सा रिश्ता
बंध गया था
हम सब के बीच.
कुछ ही सालों में
इमारतें इतनी ,
धकेल दिया
पीछे खेतों को .
छिप गयी वो नहर
इस फुटपाथ के नीचे,
जहां से गुजरता
इन इमारतों का दूषित जल .
नहर ने भी तय किया
सफ़र अपना
गंगाजल से गंदाजल का.
इन्हीं चंद सालों में.


मैं कुछ आगे बढ़ा,
उसी पगडंडी पर
यादों के सहारे, -
उस मैदान पर ,
कोने पर जिसके होता
एक छोटा शिवाला.
युग सा बीत चुका ,
विशाल भव्यमंदिर की
चारदीवारी में गूँज रहा-
यत्र , तत्र, सर्वत्र-
जनावेश का निनाद
आसपास फलफूल रहा-
अजीब सा अजगरी व्यापार.


वो मैदान जहां
भागते फिरते
तितलियों के पीछे
अनजान चुभते काँटों से.
जूनून था सवार
तितलियों को पकड़ने का.
पकड़ फिर छोड़ने का.
देखते दूर तक
उड़ती तितलियाँ,
खिलखिलाते हम सब ,
बजाते तालियाँ,
झूमते हवा के संग.
मैदान के इस कोने से,
उस कोने तक
ढूँढते फिरते एक दूसरे को
झाड़ियों के झुरमुट में
निर्भीक , निश्चिन्त ,
निश्चिन्त, बेपरवा
उन छिपे सांप , बिच्छुओं से.
वो भी आनंद मगन ,
संग हमारे .


पर यादों के झरोखों का
वो मंजर ओझल हो गया ,
बहुमंजीली इमारतों में,
उड़ गयी तितलियाँ
खामोश किलकारियां
झिलमिलाता , टिमटिमाता
अब परेशान सा बचपन
अनजान तितलियों से
भागता फिरता दिशाहीन ,
बदहवास कारवां
अपने ही सपने बुनता -
उन्हीं के पीछे भागता
देखता-
टूटते, उजड़ते सपनों का मंजर
किलकारी लगाता ,
खुद को बहलाता
देख नए सपनों का अम्बार .
फिर भी अनजान
अब तक उन्हीं
सांप बिच्छुओं से
जो रोष में भरे दुबके -
छिपे कचरों के डिब्बों पीछे.


कहाँ से कहाँ तक
चल पड़ा पूरा शहर ,
कुछ भी वैसा नहीं
अब छिप गया
पूरा मंजर
मेरी यादों के कोनों में.
अब क्या कहूं तुम्हें
कैसे देख सकता
बचपन तुम्हारा
थामे उंगलियाँ मेरी .
बिजली सी कौधी
जब मेरे बचपन ने
थामी थी , उंगलियाँ
नहीं देख पाया होगा
उस सुनसान जर्जर किले का
विस्मित , विलासमय इतिहास .
उस किले से मेरी बस्ती
और मेरी बस्ती से
तुम्हारा शहर
यही धरोहर
दिए जा रहा तुम्हे.
पर क्या बता पाओगे
मुझे
क्या सोंपोगे -
तुम अपने आने वाले बचपन को?
खिलखिलाते हो क्यों ?
देख आसमान को
सिहरन सी दौड़ गयी ,
ठहरो ज़रा सा मोड़ लो
अपना प्रगती रथ ,
इस प्रकृति चक्र संग .

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