Sunday, October 16, 2011

विचलित मन

आने वाले पल को
सोच क्यों विचलित -
यह मन.
कुछ भी तो
नहीं बदला
सब कुछ- यथावत.
अब भी डगमगाते कदमों से
चलता- बचपन,
कभी संभलता , कभी लुढ़कता.
सब कुछ मुठी में
क़ैद करने की चाह से
यौवन भरा - खिलखिलाता
जब रेत सा सब फिसल जाता.
किसी कोने में-
अपनी पहचान ढूँढता
सिहरता ,ढलता - बुढापा,
कभी कहकहे लगाता,

ईंट, गारे, चूनों की दीवारों से
बदलता नहीं इतिहास.
कागज़ पर
स्याही की लकीरों से
समाज नहीं बंटता.
अब भी जन्म लेते
राम,रहीम और यीशु
नाश करने
मन के विकारों का.
कब देखा तुमने -
ऐ मन
बदलती भाषाओँ पर
भावनाओं को बदलते.
अपने ही चारों तरफ देखो
लिखे जा रहे वेद , कुरान और बाइबल.
नाम बदलने से ,
भाव नहीं बदलते.
इतिहास कब दोहराए गए ,
सिर्फ नित नए
भेष में पाए गए.

No comments:

Post a Comment