Wednesday, October 5, 2011

नयी खिड़की

नयी खिड़की

एक नयी-
खिड़की ही तो
बनाई थी
घर में.
क्यों मचा, कोहराम-
शहर में.

सिर्फ-
देखना भर,
चाहता चाँद को
बिखेरते-
चांदनी अपनी.
क़ैद- नहीं,
करना चाहता उसे.

देखना चाहता दूर तक-
इस गली को,
जो अपनी-
चाल सर्पीली करते,
छिप जाती -
जा जरा सी दूर.

भले ही,
कितनी भी उड़े गर्द
घर में मेरे आए-
बंद नहीं करनी-
यह खिड़की.

तुम भी आओ,
देखो यहाँ से-
मेरे साथ,
इस पेड़ को छाओं -
घुमती-फिरती
छमछमाती सी -
आँगन में मेरे.

पर मत तोड़ना
फलों को.
नाराज मत करो,
इन चहचहाती चिड़ियों को-

चाहे नाराज रहे
सारा शहर.
खुली रखनी
मुझे मेरे घर की
नयी खिड़की

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