नयी खिड़की
एक नयी-
खिड़की ही तो
बनाई थी
घर में.
क्यों मचा, कोहराम-
शहर में.
सिर्फ-
देखना भर,
चाहता चाँद को
बिखेरते-
चांदनी अपनी.
क़ैद- नहीं,
करना चाहता उसे.
देखना चाहता दूर तक-
इस गली को,
जो अपनी-
चाल सर्पीली करते,
छिप जाती -
जा जरा सी दूर.
भले ही,
कितनी भी उड़े गर्द
घर में मेरे आए-
बंद नहीं करनी-
यह खिड़की.
तुम भी आओ,
देखो यहाँ से-
मेरे साथ,
इस पेड़ को छाओं -
घुमती-फिरती
छमछमाती सी -
आँगन में मेरे.
पर मत तोड़ना
फलों को.
नाराज मत करो,
इन चहचहाती चिड़ियों को-
चाहे नाराज रहे
सारा शहर.
खुली रखनी
मुझे मेरे घर की
नयी खिड़की
Wednesday, October 5, 2011
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