Tuesday, October 11, 2011

कमरा

जाने कितनी बार सोचा
एक बार कुंडी खोल
झांक लूं बस-
पर वो ड्योढी
लांघने की हिम्मत नहीं होती.
इतनी बड़ी हवेली,
इतने सारे कमरे
सब सजते-
होली, दीवाली ,दशहरे,
झूमते, जगमगाते, रंगीनियाँ बिखेरते.
कभी ना देखा सजते, संवरते
इस कमरे को.

अँधेरा ही होगा-
उस कमरे में
कोई खिड़की तक नहीं देखी,
न रोशनदान-
जहां से किरण सूरज की
या चाँद की चांदनी
छम् से आये-
और लकीर बन रह जाए.
जबसे धरोहर में मिली-
यह हवेली
सुनता यही पाया -
उसे मत खोलना.
क्यों -
अपवित्र हो जाऊँगा,
या फिर अछूत
यह कमरा.
जवाब किसी ने न दिया.
जहां कहीं भी जाऊं
बाजार में, दफ्तर में,
महफ़िल में, दोस्तों में,
देश में , परदेश में-
सूनापन कमरे का-
अक्सर कचोटता .
ऊब जाता मन
पल को-
फिर उलझ जाता
अगले पल- दुनियादारी में.

सीलन कमरे की
भिनभिनाती हवेली में सारी.
शायद सीलन ही होगी
जो निकल रही-
दरवाज़े के ओट से.
दिन तमाम ढूढता रहा
जाने कहाँ -
नज़र नहीं आती
घर की बिल्ली -
छिप गयी होगी
या ग़ुम हो गयी.
कम्पन हुआ था -
हल्का सा, भूकंप था कोई.
थर्रा गयी हवेली सारी.
हिल गयी दीवारें,
चटख गए दरवाजे.
तभी से नदारद
बिल्ली हमारी.
लम्बी एक दरार
नज़र आयी-कमरे में.
कहीं बिल्ली इसमें तो
दुबक नहीं गयी.
जरा देखूं झाँक कर
इसी बहाने
पता तो चले,
क्या छिपा इसमें.

अजीब सा नज़ारा-
अनगिनत जुगनू
भीनी भीनी सुगंध-
मन को अधीर करती.
आँखें देख रही -
कुछ भी अभिन्न नहीं
सब कुछ नज़र आता -
नज़र दौड़ती जहां.
जहां ना देखो- अन्धकार.
आँखों में चमक रहे -
सूरज और चाँद साथ- साथ,
अन्धेरा -उजियारा,
कोई बड़ा ना, कोई छोटा
ना कोई अच्छा ना कोई बुरा.
क्या सब कुछ , यहीं सिमट गया.
ठहरो ज़रा सबको बुला लाऊँ-
सारे घरवाले भी देखें-
अब कोई मना ना करे
पर पाँव
उठते नहीं.
सारा शरीर मगन -
देख अद्भुत दृश्य.
क्या है?
एक कमरा सिर्फ.
पहले आ जाता-
व्यर्थ नहीं जाते
वो सारे
कसक मन के .

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