यह कैसा वीराना
थम गयी
लहलहाती हवा.
फूलों के रंग-
तैरते खुशबूओं में
उतरते पहाड़ों से नीचे.
रौशनी सूरज की
पेड़ों के झुरमुटों से
तकती फिर
छिप जाती.
जाने क्या देख
पल भर को थम
सिहर रही - सारी प्रकृती.
आँखे बोल रहीं-
पुतलियों से सुन रहे-
तन्मय खामोश लब.
सारी दास्ताँ,
धड़कनों की
दूरी सदियों की-
पल में तय कर रहा-
आज समय.
२४/१०/१०
Tuesday, October 11, 2011
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