अब मंजिल कहाँ-
इन रास्तों पर
सफ़र ही सफ़र.
कहीं और ही
छूट चुकी
अपनी मंजिल.
कितनों ने चुने,
रास्ते मंजिलों के लिए?
थक जाते हैं वो,
जो चुनते -
रास्ते- मंजिलों के लिए.
यकीन नहीं होता
इतना सुकून मिलता,
इन रास्तों पर.
वो कैसे थे-
युगपुरुष
जिन्होंने चुने
रास्तों को ही मंजिलें.
पर , अब
कोई नहीं चुनता
रास्तों को ही मंजिलें.
सारे दोहरे मापदंड
धर हथेलियों पर -
चल रहे रास्तों पर -
युगनिर्माण को.
पर कहाँ-
इनकी मंजिलें?
Sunday, October 16, 2011
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