Saturday, October 29, 2011

आस

वो एक नदी ही थी,
उन्मुक्त, मगन,
मदमस्त, झरझर ,
कलकल कर
गुज़री पहाड़ों से ,
हरियाली बिखेरती ,
मैदानों में
उंदेल दिया खुद को
सागर की प्यास बुझाने .
बुझी नहीं प्यास ,
अब तक -
सागर समोता गया,
न जाने नदियाँ कितनी.
रास्ते बन गए
नदियों के,
नित नए
बंजर , बीहड़ रेतीले टीले ,
पर रोक न सके.
मरुथल सागर का -

जो अब भी गहराता जा रहा.
प्यासा हिरन
भटक चुका ,
मृगतृष्णा से
बुझाने
अपनी प्यास.
भूल गया रास्ते ,
जो बनाये थे
कभी नदी ने.
क्या पता कितने ,
वन जीवन जलते रहे
जो कभी पनपे
नदी के दोनो किनारे.
सिर्फ राख
बनती जा रही -
और फैलता जा रहा धुआं ,
घुट कर रह गयी नदी-
सूख गया बर्फीला पहाड़
और सहम गया
देख सागर की प्यास.
वो देखो -
क्षितीज पर
धुआं की ओट से ,
हल्की सी बदली -
उठती ना जाने
कहाँ से संजो देती
न जाने कितने सपने.
शायद फिर बरसे ,
पर न जाने -
कब?

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