कितनी आवाजें
तैर रही
इस सफ़र में.
थक गया,मुसाफिर
इनका पीछा करते.
रुकती ही नहीं-
आवाजें.
सपनों सी लगतीं
कभी सुहावनी,
कभी डरावनी.
मौक़ा भी नहीं देती
यही आवाजें
इक पल मुलाक़ात
हकीकत से.
कोई साथी भी नहीं,
सिर्फ साया सा एक -
साथ फिरता.
जब ढूँढता उसे - मुसाफिर,
वह भी
ओझल हो जाता .
परेशान ,
बुझा हुआ और
अन्दर ही कहीं
बिखरा हुआ - मुसाफिर.
पर नज़र नहीं आता
बाहर से.
अकेला नहीं
इस भीड़ में पर ,
इतना तन्हा-
कभी नहीं- मुसाफिर.
सफ़र तो सिर्फ
सफ़र है -
सभी के लिए,
फिर कैसे रुके - मुसाफिर.
Sunday, October 16, 2011
Subscribe to:
Post Comments (Atom)
No comments:
Post a Comment