Tuesday, October 11, 2011

मनभावन

फूल नर्गिस के,
भाते मन को मेरे.
भीनी- भीनी खुशबू -
तैरती ,भिगोती
तन - मन मेरा.
वो रंग बिरंगी पंखुड़ियां
धीरे धीरे खुल रही
कलियाँ चुपके से ,
चुराकर नज़रें सबसे
देख रहीं संसार.
जाने कितने रंग
घुल मिल रहे
लगता देखता ही जाऊं .
महसूस करूँ- यह सुगंध.
क्या नाम दूं इनको -
कितनी अलग- थलग.
लचक जाती , डाली सारी
जो चलता हल्का हवा का झोंका.
हरे हरे पत्ते दोल उठाते,
मदमस्त हो जाते.
जो पीले पत्ते झड़ जाते -
कोंपले दिखती वहाँ

किसने पूछा ?
कौन छिपा वहाँ?
सिर्फ हल्की सी छाया .
हाँ- मैंने पूछा-
देखा कभी नर्गिस का पेड़?
क्या होता?
कहाँ खिलता नर्गिस का फूल?
बताओ - कब देखा?
कहाँ देखा-

कौन हो तुम ?
धुंधला नज़र आ रहा.
यह कैसे प्रश्न-
क्यों दूं जवाब तुम्हे-
इन सवालों के जवाब.
कितने जवाब दूं -
नहीं जवाब पास मेरे
जवाब इतने सवालों के.
कब होगा ख़त्म -
सिलसिला मुझसे जवाब सुनने का.
क्यों पूछते मुझे-
अपने सारे सवाल.
जो मैंने कहा- सुनो
सिर्फ कहा नहीं-
जवाब देने या
सवाल तुम्हारा सुनने.
फूल नर्गिस के,
भाते मन को मेरे.
बस यही सुनो,
मनन करो.

अच्छा तो
देखा नहीं तुमने फूल नर्गिस के.
कैसे महसूस की खुशबू इनकी?
कहाँ देखे अनगिनत रंग?
कब देखी लचकती डाली ?
कैसे भाये मन को तेरे?
जब देखा ही नहीं.

छाया में जिसके तुम खड़े -
उस बाग़ से आ रही खुशबू
जाने कितने फूल खिल रहे.
यह देखो खेत धान के -
लहलहाती बालियाँ
उस रहट से निकलता पानी
झर झर सींच रहा -
मिट्टी किसान की.
सोंधी खुशबू आ रही खेत से.
क्यों नहीं भाता.
मन को तुम्हारे?
इतना सब देख रहे,
महसूस कर रहे.
फिर क्यों भाता मन को
जो ना देखा,
ना महसूस किया?
पत्थरों में दब गया -
सदियों पहले
तस्वीर बन जम गया-
कुरेद कुरेद मिट्टी निकाली
तभी उभर कर आयी -
पहचान उसकी रंगों का ,
खुशबू का बस नाम-
किसने दिया नाम नर्गिस
सुना सुनाया , पढ़ा पढ़ाया -
कैसे भाया ?
कुछ तो जवाब होगा.

तो क्या-यह सब,
जो आज दिख रहा
भाएगा सदियों बाद-
किसी और को.
जो आज- उससे अनभिज्ञ.
जो शून्य-
वो मनभावन,
श्रद्धेय -
कौन देगा जवाब?
अगर तुम रहोगे - मौन.

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