हे प्रिय
स्वागत है तुम्हारा
युद्ध विजयी
जो हुए तुम.
तुम्हारे लिए ही
सजा रखा
यह विजय थाल -
थक गयी पलकें
तुम्हारे इंतज़ार में .
यहाँ
क्यों ले कर आये?
हे प्रिय-
क्या यही था
समरांगन तुम्हारा?
तुम
कहाँ विजयी हुए?
जीते तो लोमड़, सियाल और गिद्ध-
हार गए प्रेम , विश्वास और जीजिवासा.
मसान जीत लाये,
हार कर बस्तियां.
मिटी कहाँ सीमाएं,
बस कुछ और
हो गयीं परे.
क्या
नहीं जान पाए
अपने ही शत्रु को?
महसूस ही कब की
पीड़ा सृजन की.
हे प्रिय ,
आओ अब चलें
इस राह से.
उस कल्प वृक्ष तक.
उतार लायें उन अस्त्रों को-
जो छिपा रखा है
नजाने कितनी सदियों से.
कहाँ अवरुद्ध हुआ
द्वार प्रस्थान का.
हे प्रिय
क्या एक और महायुद्ध
नहीं लड़ोगे मेरे लिए.
विजयी होकर लौटना
तुम्हें मेरे इन्द्रधनुषी
सपने करने तुम्हे
साकार.
इस अंधे युद्ध से
भीषण, भयावह
और एक सिर्फ...
Sunday, October 16, 2011
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