कहते हैं यह दुनिया एक गाँव, कोई किसी से नहीं अछूता
घर मैं अपना साथ निभा, चौपाल पर कुछ यारों से
मैं सात समुंदर पार चला.
तीसरी दुनिया में बचपन बीता, उसीकी मिट्टी, पानी, हवा ने तराशा
अब दूसरी दुनिया छोड़, पहली दुनिया में अपनी आजमाईश करने
मैं सात समुंदर पार चला.
खेली अठखेलियाँ, खिली-खिली धुप, दूब, चांदनी में
अब जरा सर्दीली हवा, रेतीली बर्फ पर पाँव आजमाने
मैं सात समुंदर पार चला.
सुना था दूर के मंजर होते है सुहाने, पर सुनी बातों पर यकीन कब था
घर को सुनहरे मंजर तक, पहुंचाने की चाह में
मैं सात समुंदर पार चला
वहाँ दोस्तों से मिल, सपनों के ताने-बाने बुनता
उन्ही सपनों में, चंद सपनों को अपनाने
मैं सात समुंदर पार चला .
रोटी तो वहाँ भी थी, साथ थी अपनों की नरम गरम बातें
जाने दिल को क्या टीस लगी, गैरों में अपनों को ढूँढने
मैं सात समुंदर पार चला.
सदीयाँ बीतीं, मूल्यों को दिल में अपने आंकने
इस दिल एक छवि, जाने किसे दिखाने
मैं सात समुंदर पार चला.
खींची लकीरें जाने किसने, गहराती गयी वक़्त के साथ
लकीरों के उस पार बैठे, कुछ यारों से वक़्त गुजारने
मैं सात समुंदर पार चला.
वो बापू की रंगभूमी, यह है उनकी स्वप्नभूमी
इस स्वप्नभूमी को अपनी, कर्मभूमी करने
मैं सात समुंदर पार चला.
कौन यकीन करता, मेरे इस फैसले पर जो जाने किस घड़ी लिया
खुद हैरान परेशान हूँ, जब सोचता इतनी सी बात पर
मैं सात समुंदर पार चला.
Sunday, October 16, 2011
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