कौन बसा
कोयल की कूक
सुन सिहर सा जाता मैं.
मन को गुदगुदाती .
मचल उठता-
मन वही-
गुजर फूलों के पास
पाकर भीनी भीनी सुगंध.
ठहर कर
क़ैद कर लेने को
जिद कर उठता,
यही मन
जब सर्द गर्म हवा छु -
चल पड़ती आगे आगे.
सब कुछ लगता
सुंदर कभी देखकर,
कभी छु कर
कभी सूंघ कर,
कभी महसूस कर.
पर ये सभी
क्या नश्वर.
नहीं,
या फिर-
अब तक सोचता
फिर रहा यहाँ वहां -
ढूँढता रहा.
हर कण- कण .
कौन बसा?
जो बार-बार
अपने होने का
एहसास दिलाता-
इन सब में बस कर-
क्या वो भी नश्वर?
१४.०९ .१०
Wednesday, October 5, 2011
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