Tuesday, October 11, 2011

कहाँ हैं सब

ऐसी एक धरती
गगन चूमने को तरसता.
ऐसी एक नदी -
मिलने को सागर
हिलोरें लेता.
ऐसा ही एक झोंका-
आंधिया समेटने को मचलती.

समय से परे-
सब कुछ बंधन मुक्त,
उन्मुक्त.
कितने युग -
ढलते गए पलों में.
पर कहाँ- यह सब?

जाने किसे थामे,
घूम रही धरती-
कितने असह्य बोझ
सीने पर थामे.

जाने कितनी बूंदे ओस की
संजो नित नए मोड़ से
गुजर रही वह नदी
बेसुध.

जाने कितने मंजर,
समेटे आगोश में अपने
बहे जा रहे झोँके
वो भी अनवरत.

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