Wednesday, May 2, 2012

भाव

भाव
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रोक लो-
शब्द.
सब,
अर्थहीन .

सीमाहीन
शक्ति-
उस पार.
तक रही
आँखें,
इस द्वार -
शक्तिहीन.

ढूँढ लो,
साथी -
पंक्तिहीन
पंखहीन.

यह पल -
यह भाव -
सिर्फ भेदहीन
संपर्क विहीन....

कोई नहीं

कोई नहीं
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 न पत्थरों में खुदा देखा , न इंसानों में रूह देखी
यह कैसा जहां है , जहां कोई रूबरू नहीं .

ना दिल में फसाने , ना आँखों से आंसूं बरसे ,
कैसे कह दूं महफ़िल से, मोहब्बत उनसे नहीं.

ना वो मंजर , ना वो आबो हवा रही ,
 गुल तो खिलते अब भी, अब वो कशिश उनमें नहीं.

ना वो हमसफ़र , ना वो महफिलें सजतीं,
ये कैसी मुलाकातें , जहां शिकायतें नहीं.

ना पल दो पल का साथ , ना सदियों का बिछड़ना
तकती राह आँखें सूनी , पर उम्मीद अब कोई नहीं.

इमारत की छत

इमारत की छत
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 इस इमारत की छत से ,
 सारा गाँव दिखता,
टिमटिमाता लहलहाता.
अब कोई नहीं आता,
इन सीढ़ियों से,
इस छत पर.
जाने इमारतें कितनी,
बिक गयी -
अनजान से
बाजारों में.
बिक रही अब
सिर्फ छतें इनकी.

अट्टहास करती,
सज रही अट्टालिकाएं.
बिक गयी दीवारें-
कट,छट गए ,
सारे इर्द- गिर्द जंगल .
अहसास बाकी रहा ,
एक तूफ़ान का,
एक जलजले का,
एक सैलाब का.
जो सहे जाने कितने ,
इस जर्जर ,
थर्राती इमारत ने.
सब सोये बेखबर,
कोई नहीं जाता अब,
इस इमारत की छत पर. 

 

यकीन नहीं होता, सुभाष

यकीन नहीं होता, सुभाष

यकीन नहीं होता, इन भेड़ियों को देख
इस जंगल में , किसी शेर ने भी दहाड़ा था.

यकीन नहीं होता, पगडंडियों पर सपोंलों को रेंगते देख
इस रह गुजर से, कोई नेवला भी गुजरा था.

यकीन नहीं होता, जवानो की खून की गर्मी देख
तपिश पसीने की तुम्हारी, अब वतन मेरा तरस रहा.

यकीन नहीं होता, रेत की दीवारों से ढहते उसूलों को देख
फौलादी इरादे कैसे थे, जो मंजर अब तब तक टिका रहा.

यकीन नहीं होता, हलके से झोंके पर बुझते चिरागों को देख
कौन था वो जो चिराग हथेली पर रख, तूफानों से जा भिड़ा.

यकीन नहीं होता, इन स्वार्थियों का रचा प्रपंच देख
कैसा जूनून रहा उसका, जो सब तज अपनी बली दे बैठा.

यकीन नहीं होता, बुझा चिराग दुबक बैठे अपने घरों में
कौन था वो जो, रोशन घर करने सूरज से जा भिड़ा.

मेरा तो सर झुकता सजदे में, यादें कर बीते दिनों की
जब से भूले तुमको , यह गुलिस्तां अब शमशान से बदतर लग रहा...
२६ jan २०१२

साज और धुन


साज और धुन

कैसी यह आवाज ?
जाने कहाँ से आती?

घुल जाती
कानों में .
उतर जाती
दिल की तह तक.
धरोहर में मिली
इस अनजान डगर पर.
चारों तरफ उड़ती गर्द,
शोर फैला काफिलों का
पर, यह धुन- निरंतर.

अलग ही पहचान इसकी
सुनी अनसुनी -
लगती नहीं.
सब खोये -
चल रहे धुन पर
मदमस्त, उन्मद, भावुक.
कौन सा साज
छेड़ रहा धुन ऐसी .

राहें बदल-बदल
देखने निकले कई.
कोई जंगल देख-
मुड़ गया .
कोई पर्वत देख -
चढ़ गया
झरना देख-
रुक गया कोई
तो साथ हो लिया -
देख नदी की चाल .
अपनी ही धुन में,
रमा ली धुन की सरगम.
कई गुम हो गए ,
कई लौटे.
आँखो ने - जाने क्या देखा
कानों ने - जाने क्या सुना
बस- अवाक.
सिर्फ खामोश
लब कह रहे
अपनी दास्तान .
मेले से लग जाते जाने
कितनी कहानी.
पर समझते विरले.
जाने कितनी ज़ुबानी

कैसा यह साज ?
छेड़ रहा कौन ?
अब तक -
यह प्रश्न
उतना ही मौन.
मन रहे अशांत
धीरज बंधाती -
यह धुन .
मन रहे - उन्मद
थिरकती साथ धुन.


हवा की तरंगों से-
बंधी नहीं
अंतरिक्ष तक देख-
सीमित नहीं .
समय के साथ-
चलती - नहीं
जीवन से परे -
मृत्यु से - विमुख ,
जाने कितनी सदियों
सुना अगणित मनीषियों ने
अथक बखाना.
उलझाया तर्क - कुतर्कों में
बाँट दिया कारवाँ -
जो था कभी साथ .
अगिनत निकली पगडंडियाँ
चलते जाते सब -
बंटते जाते सब.


सतरंगी सी लगने लगी ,
आँखों को
छू - किरण सूरज की.
सरगमी हो गयी धुन,
कानों को छू, -
यह अद्भुत धुन.

अब तो बनाने लगे ,
अगिनत साज -
जाने कितनी चाप
सजाने धुन के स्वर,
अलापते राग-
सदियों का रियाज,
घरानों के रिवाज-
उस्तादों के अंदाज.
अलख लगाते -
महफिलें सजाते ,
अपना ही अंदाज-
अपनी ही धुनें .
कहाँ तक सुने कोई ?
कौन समझाये -
इन पाखंडियों को-
सब आलाप रहे -
धुन से परे.
साज सारे इनके-
अर्धविकसित ,
कहाँ से जगाये-
यह निर्मल धुन.