Wednesday, May 2, 2012

इमारत की छत

इमारत की छत
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 इस इमारत की छत से ,
 सारा गाँव दिखता,
टिमटिमाता लहलहाता.
अब कोई नहीं आता,
इन सीढ़ियों से,
इस छत पर.
जाने इमारतें कितनी,
बिक गयी -
अनजान से
बाजारों में.
बिक रही अब
सिर्फ छतें इनकी.

अट्टहास करती,
सज रही अट्टालिकाएं.
बिक गयी दीवारें-
कट,छट गए ,
सारे इर्द- गिर्द जंगल .
अहसास बाकी रहा ,
एक तूफ़ान का,
एक जलजले का,
एक सैलाब का.
जो सहे जाने कितने ,
इस जर्जर ,
थर्राती इमारत ने.
सब सोये बेखबर,
कोई नहीं जाता अब,
इस इमारत की छत पर. 

 

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