Wednesday, May 2, 2012

साज और धुन


साज और धुन

कैसी यह आवाज ?
जाने कहाँ से आती?

घुल जाती
कानों में .
उतर जाती
दिल की तह तक.
धरोहर में मिली
इस अनजान डगर पर.
चारों तरफ उड़ती गर्द,
शोर फैला काफिलों का
पर, यह धुन- निरंतर.

अलग ही पहचान इसकी
सुनी अनसुनी -
लगती नहीं.
सब खोये -
चल रहे धुन पर
मदमस्त, उन्मद, भावुक.
कौन सा साज
छेड़ रहा धुन ऐसी .

राहें बदल-बदल
देखने निकले कई.
कोई जंगल देख-
मुड़ गया .
कोई पर्वत देख -
चढ़ गया
झरना देख-
रुक गया कोई
तो साथ हो लिया -
देख नदी की चाल .
अपनी ही धुन में,
रमा ली धुन की सरगम.
कई गुम हो गए ,
कई लौटे.
आँखो ने - जाने क्या देखा
कानों ने - जाने क्या सुना
बस- अवाक.
सिर्फ खामोश
लब कह रहे
अपनी दास्तान .
मेले से लग जाते जाने
कितनी कहानी.
पर समझते विरले.
जाने कितनी ज़ुबानी

कैसा यह साज ?
छेड़ रहा कौन ?
अब तक -
यह प्रश्न
उतना ही मौन.
मन रहे अशांत
धीरज बंधाती -
यह धुन .
मन रहे - उन्मद
थिरकती साथ धुन.


हवा की तरंगों से-
बंधी नहीं
अंतरिक्ष तक देख-
सीमित नहीं .
समय के साथ-
चलती - नहीं
जीवन से परे -
मृत्यु से - विमुख ,
जाने कितनी सदियों
सुना अगणित मनीषियों ने
अथक बखाना.
उलझाया तर्क - कुतर्कों में
बाँट दिया कारवाँ -
जो था कभी साथ .
अगिनत निकली पगडंडियाँ
चलते जाते सब -
बंटते जाते सब.


सतरंगी सी लगने लगी ,
आँखों को
छू - किरण सूरज की.
सरगमी हो गयी धुन,
कानों को छू, -
यह अद्भुत धुन.

अब तो बनाने लगे ,
अगिनत साज -
जाने कितनी चाप
सजाने धुन के स्वर,
अलापते राग-
सदियों का रियाज,
घरानों के रिवाज-
उस्तादों के अंदाज.
अलख लगाते -
महफिलें सजाते ,
अपना ही अंदाज-
अपनी ही धुनें .
कहाँ तक सुने कोई ?
कौन समझाये -
इन पाखंडियों को-
सब आलाप रहे -
धुन से परे.
साज सारे इनके-
अर्धविकसित ,
कहाँ से जगाये-
यह निर्मल धुन.

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