Friday, May 3, 2013

आत्मन


हे आत्मन -

जानते हो,

क्या होती - आत्मा ?

किसे कहते - परमात्मा ?

रोज देखते तुम,

उगते, ढलते चांद, सूरज

लहलहाती पवन

चंचल नदी, उत्तंग शिखर ।

यह धरती, यह गगन

बीच में बस मैं और तुम ।

कभी भटकते समरांगण,

कभी विचरते गहन सुगम वन ।

कभी महसूस करते,

कभी स्पर्श - तो कभी मनन ।

जो मैं कहता कभी मान लेते

तो कभी मानते कर गहन अध्ययन ।

फिर, अब क्यों - मौन ?

कहो आत्मन, क्या जाना क्या बूझा

क्यों सूनी-सूनी आँखें तुम्हारी,

मौन, शांत क्यों अब तुम्हारा मन ?

सब कुछ शून्य- हे आत्मन

सब कुछ शून्य- बस शून्य

इसी से जात यह सब

इसी में सब विलीन ।

जैसी अद्भुत परीभाषा इसकी

वैसा ही यह परम पावन ।

बस शून्य सिर्फ शून्य

समझे हे आत्मन।

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