हे आत्मन -
जानते हो,
क्या होती - आत्मा
?
किसे कहते - परमात्मा
?
रोज देखते तुम,
उगते, ढलते चांद, सूरज
लहलहाती पवन
चंचल नदी, उत्तंग शिखर
।
यह धरती, यह गगन
बीच में बस मैं और
तुम ।
कभी भटकते समरांगण,
कभी विचरते गहन सुगम
वन ।
कभी महसूस करते,
कभी स्पर्श - तो कभी
मनन ।
जो मैं कहता कभी मान
लेते
तो कभी मानते कर गहन
अध्ययन ।
फिर, अब क्यों - मौन
?
कहो आत्मन, क्या जाना
क्या बूझा
क्यों सूनी-सूनी आँखें
तुम्हारी,
मौन, शांत क्यों अब
तुम्हारा मन ?
सब कुछ शून्य- हे आत्मन
सब कुछ शून्य- बस शून्य
इसी से जात यह सब
इसी में सब विलीन ।
जैसी अद्भुत परीभाषा
इसकी
वैसा ही यह परम पावन
।
बस शून्य सिर्फ शून्य
समझे हे आत्मन।
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