कैसा गूंज रहा अट्टहास-
इन शहरों से,
पिघल रहा, पत्थर पहाड़ों
के ।
कैसी उठ रही सिसकियां
इन गलियारों से
सरक रहे जंगल,
शहरों की सीमाओं से
।
सारे वहशी जानवर
डरे सहमे से - तक रहे-
कोई इन्सान न दिख जाये
।
पिघलते पत्थर -
सरकते जंगल -
सहमे जानवर -
देख नजारे सारे
सागर सारा टिक रह गया
कोटर में मेरी आंख
के
बूंद एक आंसू की बन
न बह रहा - न टपक रहा
।
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